Samratamitpandit
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मैं मुसाफिर अकेला
अपनी राह का, अपनी मंजिल का।
चला जा रहा हूं कुछ ख्वाब लिए, कुछ आस लिए।
कुछ अनजान मिलते हैं अपने हो जाते हैं
कुछ अपने होकर बिछड़ जाते हैं।
कोशिश यही है जो मिले बिछड़ने न पाए
साथ चलें कुछ दूर कोई अकेले चलने न पाए ।
मगर ध्यान है,
मैं मुसाफिर अकेला
अपनी राह का, अपनी मंजिल का।
चला जा रहा रहा हूं।
कुछ ख्वाब लिए, कुछ आस लिए ।
~ अनंत
डिस्क्लेमर: उपरोक्त विचारों के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी हैं। जागरण जंक्शन किसी दावे या आंकड़े की पुष्टि नहीं करता है।
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