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माँ तो देना जाने है बस…
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माँ कहती रहती है जिसको फूल फूल बस फूल
पंख निकल आये हैं जबसे बना हुआ है शूल
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पेट काटकर जिसको पाला
जिसकी बाहें माँ की माला
कितना बदल गया है देखो
माँ पर प्यार लुटाने वाला
माँ के सारे उपकारों को समझे आज फिजूल-
पंख निकल आये हैं जबसे बना हुआ है शूल
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आलीशान महल है भाई
घरवाले भी झूम रहे हैं
धुले धुलाये फर्नीचर भी
इक दूजे को चूम रहे हैं
लेकिन माँ के मुखड़े पर तो जमी हुई है धूल-
पंख निकल आये हैं जबसे बना हुआ है शूल
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अंत समय में सपने सारे
तिल-तिल पल-पल टूट रहे हैं
माँ के मधुर हृदय से लेकिन
शब्द दुआ के फूट रहे हैं
माँ तो देना जाने है बस करती कहाँ वसूल-
पंख निकल आये हैं जबसे बना हुआ है शूल
रचना- आकाश महेशपुरी
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नोट- यह रचना मेरी प्रथम प्रकाशित पुस्तक “सब रोटी का खेल” जो मेरी किशोरावस्था में लिखी गयी रचनाओं का हूबहू संकलन है, से ली गयी है। यहाँ यह रचना मेरे द्वारा शिल्पगत त्रुटियों में यथासम्भव सुधार करने के उपरांत प्रस्तुत की जा रही है।
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