आकाश महेशपुरी
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मुसीबत से भरी राहों में चलकर हार जाता हूँ
सफ़र चिंगारियों का है मैं जलकर हार जाता हूँ
पतिंगा हूँ मुहब्बत है मुझे भाई उजालों से
उजालों के मैं अंधेरों में ढलकर हार जाता हूँ
पहाड़ों की भी चोटी को वो अक्सर जीत लेता है
जमीं पे भी चलूँ मैं तो फिसलकर हार जाता हूँ
न खेले आज कोई फिर यूँ मेरी भावनाओं से
बहुत नाज़ुक है मेरा दिल पिघलकर हार जाता हूँ
नहीं है भाग्य पे मुझको भरोसा पर न जाने क्यों
किसी मझधार से बाहर निकलकर हार जाता हूँ
यही तो रोज का “आकाश” क़िस्सा हो गया है अब
कि गिरता हूँ सम्हलता हूँ सम्हलकर हार जाता हूँ
ग़ज़ल- आकाश महेशपुरी
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वकील कुशवाहा “आकाश महेशपुरी”
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