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सन १९४७ में स्वतन्त्रता के बाद बड़े जोरशोर से कहा जानेलगा था की भारत अनेकता में एकता की एक मिसाल है. परन्तु यदि आज देश के पटल पर दृष्टि डाली जाए तो ऐसा लगता है की एकता कहीं दब कर रह गयी और अनेकता या डाइवेर्सिटी चारों ओर दिखाई पद रही है. डर है यदि इसी राह पर देश चलेगा तो भारत देश का भविष्य अत्यंत खतरे में है.
हमारा जनतंत्र अब देश सेवा के उद्द्येश्य से राजनीती में आये व्यक्तिओं के बजाय प्रोफेशनल,लालची,अनैतिक तथा बेईमान का अखाडा बनकर रहगया है. इसमें सबसे प्रमुख लक्ष्य चुनाव को येनकेन प्रकारें जीतना भर है. उनकी इन हरकतों से देश किस गड्ढे में जारहा है इसकी न किसी को चिंता है और न डर ही. हर चुनाव से एक दो साल पहले से ही उसकी तैयारिया होने लगती हैं, कोई लैप टॉप बाँट रहा होता है तो कोई मोबाइल बांटने की बात करता है. कुछ आगे बढे तो बेरोजगार को भत्ता देरहा होता है. आश्चर्य की बात है कोई ऐसों को अपने पैरों पर खड़े होकर सर उठाकर जीने के लिए तरीका नहीं देपारह है. आज के राजनीतिग्य इतने मायोपिक हैं की देश के भले की बात सोचने की क्षमता ही नहीं रखते. हद तो तब है जब पदोन्नति में आरक्षण के लिए संविधान के संशोधन की चर्चा होरही पर कोई यह नहीं सोच पारहा है की इसका असर सरकारी सेवाओं में क्या पड़ने वाला है. क्या इससे आपसी तनाव नहीं बढ़ेगा? पर उन्हें तो केवल चुनाव जीतने की ही चिंता है. देश चाहे भाद में जाए.
देश में कोअलिशन सरकारें देश की नियति बन गयी हैं क्योंकि चुनाव किसी सिद्धांतों पर नहीं कुर्सी के लिए लड़े जारहे हैं.
नतीजा देश में घोर अराजकता का माहौल बनता जारहा है.
क्या जनता चुप बैठ कर देश की अवनति को यूंही बेबस निहारती रहेगी? इसके दो ही तरीके हैं या तो देश की चुनाव प्रणाली में सुधार किया जाए ताकि अच्छी सोच वाले चुनकर आसकें अन्यथा दूसरा तरीका है जा नाक्साल्वादी अपना रहे हैं.अच्छा हो पहले तरीके के प्रयास किये जाए और हम गांधीजी के सपने को साकार करसकें,सोनिया गाँधी के नहीं.
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