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मैं गहरे सोच में डूबा हुआ हूँ. आज इस देश को क्या हुआ है? यह ऐसा क्यों है? अपने अस्सी वर्ष में इतना गहरा पतन मैंने नहीं देखा. तथाकथित नेताओं की आवाज़ में दम नहीं,उनकी करनी में ऐसा कुछ नहीं जो उनमे आस्था जगाये. हर पार्टी में केवल एक ही इच्छा है- किसी प्रकार कुर्सी हथिया सकें.इसके लिए वे कितना भी नीचे गिर सकते हैं और गिर रहे हैं.इन लोगों ने देश की संसद और विधानसभाओं को क्या बनादिया है इसपर अधिक कुछ कहना नहीं है. सभी स्वयं ही देख रहे हैं. सभी ने देखा हर चुनाव से पहले किस किस तरह के लुभावने लालच दिए जाते हैं वोट के लिए? कैसे जाती और धर्म के नाम पर आदमी आदमी को बांटा जारहा है. हद तो यह है की गुजरात में चुनाव जीतने के लिए मकान देने का लालच दिया गया. – इसको कहते हैं सूथ न कपास कोरी से लट्ठम लट्ठा.
इस समय हालत यह है सर्कार को प्रभावी ढंग से चलाने में किसी को कोई रूचि नहीं है.बस जो कुर्सी पर है वह उसे बचाने के लिए हर हथकंडा अपना रहा है. वरना क्या ऐसा होता लाखों पूर्वोत्तर निवासी ऐसे पलायन करते ? यह तब है जब हमारे प्रधान मंत्री असं म का प्रतिनिधित्त्व कर रहे हैं, यदि एक किराये के मकान को लेकर प्रतिनिधित्त्व कहें तो.जब इसके पीछे पाकिस्तान का हाथ बताया जाता है तो उन बतानेवालों को नहीं हमें शर्म आती है.
आज की लचर, अप्रभावी और निकृष्ट राजनीती के पीछे मुझे जो कारन समझ में आरहा है वह यह है.-
हमारे संविधान में राजनितिक पार्टी का कहीं कोई ज़िक्र नहीं था.उसमे नागरिक के प्रतिनिधि का हवाला है – कैसे उन्हें चुना जाना है आदि आदि. पर राजनितिक दल का नहीं. ये तो बाद में जब की राजनितिक दलों में अवनति शुरू हुई तब ५८वे संविधान संशोधन से defection पर रोक के लिए प्राविधान किये गए.तबतक दलों में आतंरिक लोक्तान्रा खत्म होने लगा था या होगया था. दल व्यक्ति विशेष की जायदाद बनगए थे. तभी से यह भी हुआ की चुनाव को कैसे भी -साम दाम दंड भेद से जीतना होगा. विचारधाराओं को गड्ढे में फेक कर केवल एक ही लक्ष्य रहगया-कुर्सी. उसके लिए आवश्यकता पड़ी धनबल बाहुबल और धूर्तता की. उसी का आश्रय लिया सभी दलों ने. आज नतीजा सबके सामने है.
इस प्रतिस्पर्धा का कोई अंत नहीं होता. जब यह चलनिक्ली तो कहाँ तक यह जाए कहा नहीं . जासकता.हर बार चुनाव के व्यय में अभूतपूर्व वृद्धि होती चली गयी.हज़ार से लाख और लाख से करोड पर अब तो लाखों करोड़ों की बात है. यह पैसा कहाँ से आये? जनता तो वैसे ही भुखमरी से पीड़ित है तो सर्कार तो है हमारे हाथ में. उसी में चाहे जितना सेंध लगाओ कौन देखता है? पिछले आठ सौ साल में देश को इतना नहीं लूटा गया जितना मात्र गत आठ सालों में लूट हुई. चूंकि सभी दल कम ज्यादा एक से ही हैं तो चाहे कितना भी शोर मचाये ये लूट तो कम होने वाली नहीं.
फिलहाल स्थिति यह है की जनता को इतना दिक्भ्रमित करदिया गया है की वोह समझ ही नहीं पारही है यह सब हो क्या रहा है. हमारे अपने ही हमें क्यों लुटे लेरहे हैं? जब चुनाव आते हैं तो अंधे बहरे की तरह जाकर ठप्पा लगा आते हैं-बगैर कुछ भी सोचे समझे. और कहा यह जाता है-जनता बड़ी चतुर है सब जानती है. इस में जस्टिस मार्कंडेय काटजू का कहना सही है-जनता बेवकूफ है. लेकिन हमारे राजनितिक दलों को तो बेवकूफ लोग ही चाहिए. जिस दिन जनता वाकई चतुर हो जायेगी उसदिन ये लुटेरे कहीं नज़र नहीं आयेंगे. क्या हमारे पास उस दिन का इन्तेज़ार करने के इलावा कोई और चारा है जब जनता चतुर हो जाए?
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