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हमारे ये नेतागन

,एकता या अनेकता
,एकता या अनेकता
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जब भी मैं अपने नेताओं की ओर निहारता हूँ मैं सोचता हूँ क्या ये हमारे भारत के ही नागरिक हैं? क्या इन्हें देश से प्यार है और वे इस पर गर्व करते हैं?या कहीं इन्होने कसम तो नहीं खाली है देश को पूरी तरह बर्बाद करने की? जब इनकी रोजाना की करनी देखते हैं तो हमारा शक विश्वास में बदलने लगता है. अभी कुछ ही माह पहले देश की लोकसभा में रात तक बड़ी बड़ी बातें करने और भाषण से तो लगा था देश का भविष्य उज्जवल है.पर जिस तरह ]जिस सफाई से इन्होने लोकपाल बिल का गला ही घोंट दिया लगा हाथी के दांत दिखने के और तथा खाने के और हैं.देश में इस समय सरकार की जैसी फजीहत होरही है वह किसी से छिपी नहीं है.अब तो वाही छीछालेदर विदेशी मीडिया भी करने लगा है. यह अकारण ही नहीं है.निश्चितरूप से इसके पीछे गंभीर अक्षमता है.इसी अक्षमता पर पर्दा डालने के लिए सरकार की समझ में कोई दूसरा तरीका नहीं आया तो पदोन्नति में आरक्षण का तुक्का चलादिया.हैरानी की बात तो यह है की एक बार भी किसी नेता ने यह सोचना ज़रूरी नहीं समझा उनके इस कदम के दूर गामी परिणाम क्या होंगे?यह तो तय है भारतीय नेता केवल आज की सोचते हैं आने वाले कल की कभी नहीं.इस समय तो बच जाए फिर कल चाहे गड्ढे में ही क्यों न गिरे.संसद के सदनों को जिस प्रकार अखाड़ा बनाया जाता है वह कितना अशोभनीय है यह भी वे नहीं सोचना चाहते. क्या कभी उन्होंने यह सोचा है वे जिस तरह की हरकतें कर रहे है आम आदमी पर उनका क्या चित्र बनाता जारहा है?
एक तो बड़ी अजीब बात है जो जनतंत्र की सुरक्षा के लिए सदन में भेजे गए वे ही जनतंत्र की हत्या करने पर आमादा होगये हैं. एक बार जब वे ५ वर्ष के लिए चुने जाते हैं तो उनको यह गलतफहमी होजाती है की वे जनता के मालिक बनगए. और उसी तरह बर्ताव करने लगजाते हैं.जनता बेचारी को पांच वर्षों तक असहाय होकर उनकी सब ज्यादातिया सहन करनी
होती है.
इस विकत परिस्थिति को सुधारने के लिए जनता जनार्दन को स्वयं ही आना होगा. अन्यथा देश में जनतंत्र के दिन समाप्त हो जायेंगे.

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