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chand

zindggi
zindggi
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कभी बोझिल से
माथे पे
लगी बतियाती बिंदी…
कभी मछली की
आँखों से छलकती
रौशनी…
कभी किसी सांप
की मणी…
कभी फूलों के बीच
भीगी सी खुशबु…
कभी बच्ची के हाथो
में फड़कती जिंदगी…

कभी मोती
सा खुद ही में
पूरा….

हर रात जहाँ की हर
शय अर्श पर
यूँ ही बादलो
से बनती
बिगड़ती रहती है….
मगर कुछ भी
मुकम्मल नहीं लगता
उससे चाँद जुड़ने से
पहले तक….
मैं उन्ही बादलो
का टुकडा हूँ…
हर रूप में
ढलने की कोशिश में
बिन तुम्हारे
अधूरी ही रह जाती हूँ….

और तुम
खुद ही में मुकम्मल
मुकम्मल चाँद……

—-आंच—-

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