माँ {एक कहानी}
एक जिन्दगी …..नया और कुछ नहीं सिवाए उसके..हाँ इसी के सहारे तो एक घर को छोड़ किसी और का हाथ थामे मैं यहाँ चली आई हूँ…यह कमरा भी शायद पहले कुछ और रहा होगा मेरी ही तरह…..
फूलो से सज़ी कमरे की हर शय….दीवार पे उनकी ही लडियां,मेज़ पे बिच्छी पत्तियां,फूलो की चादर….क्या था यह सब कोई गुलिस्तान कमरे से होके गुज़रा था शायद ,खुद के हिस्से पीछे भूलता या कोई चमन तोड़ कर यहाँ रख के भूल गया है….मैंने तो नहीं कहा था मुझको फूलो का शौक है…..फूल पैरो से कुचलने की आदत मुझको कभी नहीं थी….
तुम्हे तो मालुम है ना माँ…भले कितनी ही डांट खायी हो तुम से मैंने कभी फूल तोड़ने पे डांट नहीं खायी,सब बच्चे बाग़ से गुलाब हाथ में लिए चले आते थे,सिवाए मेरे….”मैं अच्छी बच्ची थी ना माँ “यही कहा था ना तुमने ” मेरी बिटिया तो सब से ख़ास है,तभी तो मैंने चाँद से माँगा है ,तभी तो तुम दोनों एक से दिखते हो,पाक साफ़….”
और ना जाने क्या क्या….सब कुछ मैं ही तो थी तुम्हारी……और कभी किसी को तब देखा ही नहीं था हम से मिलने आते,या यूँ ही पूछ लेते की “कैसे हो”….तुम मेरा ख्याल रखती थी और मैं तुम्हारा……उस रोज़ भी जब सितारों वाली झालर टांगते वक़्त मैं गिर गयी थी….तुमने यूँ बहला दिया था की यह झालर तो मैं मेरी गुडिया की शादी में तान्गुनी …..जब एक प्यारा सा शहज़ादा लेने आएगा….और मैं बुद्धू इसी सवाल से सारी रात सर खाती रही की”आसमान में हर रात किसकी शादी होती है जो वोह रोज़ सितारों की झालर टांग देता है….”मंदिर में तुम हर बार सर पर चुन्नी रख लेती….और मेरे सवाल फिर शुरू हो जाते ऐसा क्यूँ रखी है चुन्नी॥”भगवान हमें अपने बच्चो की तरह प्यार करता है ना,उसी सम्मान को दर्शाने के लिए सर पर चुन्नी रखी जाती है…”तुम्हारा जवाब कितना अलग था माँ…..मैं कई रोज़ तुम्हारे सामने सर पे वोह ज़रा सी चुन्नी रखे घुमती रही थी…..है ना….
बचपन सच बहुत ख़ास रहा माँ,जब तक मुझे वोह सवाल ना पूछना आया था…..”पापा कहाँ रहते हैं माँ,हम से मिलने क्यूँ नहीं आते…देखो ना यह तस्वीर भी कितनी पुरानी हो गयी है…उनका चेहरा अब साफ़ दिखता ही नहीं…..पापा को बोलो ना मैं उनेह कितना याद करती हूँ….”
इसका जवाब शायद तुम्हारे पास नहीं था….और था तो भी तुमने नहीं दिया…..उस रोज़ पहली बार किसी का फ़ोन आया था ना हमारे घर…..तुम शायद गुस्से में थी…”यह मेरी बेटी है,तुम्हारा उस से कोई वास्ता नहीं,इसकी जिम्मेदारी सिर्फ मेरी है ….””माँ पापा हैं ना फ़ोन पर,उनसे कहो ना मुझे उनसे बात करनी है”उस गुस्से में शायद तुम भूल गयी थी की तुम मुझसे क्या कह गयी थी….तुमने कहा”कोई नहीं है पापा वापा जो हूँ सिर्फ मैं हूँ तुम्हारी, कोई जरुरत नहीं है उन से बात करने की मिलने की…तेरा नाम तक तो उनेह पता नहीं है….””तो मैं बता देती ना माँ”
मैं नादान उस सब का मतलब कहाँ जानती थी….मैं बच्ची ही तो थी माँ,….उस रोज़ के फ़ोन ने तुम्हे बहुत बदल दिया था….ना तुम मुझसे अब बातें करती थी,ना कहानी सुना कर सुलाती ही थी…जिद करने पर डांट देती,…..नयी नौकरी ने तो तुम्हे मुझसे दूर ही कर दिया था….दिन भर साथ वाले घर की गीता दीदी के घर रहना होता था,वोह अपनी बेटी की तरह रखती,मगर माँ तो तुम ही थी ना…..जानती थी तुम शाम से पहले नहीं आओगी,फिर भी कई घंटे दरवाज़े पर तुम्हारी राह देखा करती थी……भला फिर उस वक़्त मुझमे आये बदलाव की जिम्मेदार मैं कैसे थी…..क्या कसूर था मेरा जो मैं फिर तुमसे उस तरह बात ना कर पायी….तुम्हारा अकेलापन तुम्हे कहाँ ले गया यह तो शायद ही मैं कभी समझ पायी…क्या मालुम वोह पैसे कमाने का क्या जुनून था……..जो तुम वहां थी जहाँ कभी कोई माँ नहीं होती…..बचपन के बाद तो शायद माँ कहना भी छोड़ दिया था तुम्हे……
उस रोज़ भी जब हॉस्पिटल से फ़ोन आया तो,तुम्हारे वहां होने की खबर ने मुझे ज़रा भी डराया नहीं माँ….तुमसे दुरी ने मुझमे एहसास जो मार दिए थे….तुम्हारी ही तरह जिम्मेदारी समझ मैंने बैंक की कॉपी लेने को तुम्हारी दराज़ खोली थी….उसी दराज़ में तुम्हारे इतने दिनों के बदलाव का सच कुछ कागजों में सिमटे रखे था…उठा कर देखा…तो डिवोर्स पेपर थे…जो शायद पापा ने तुमेह भेजे होंगे॥तुमने कभी नहीं बताया ना माँ की वोह और आप अलग अलग क्यूँ रहते हैं…उसी कगाज़ के साथ एक चिठ्ठी भी थी जो….उनेही कागजों के बीच में से मेरे पैरो पे गिर पड़ी थी…वोह कागज़ मुझसे माफ़ी तो नहीं मांग रहा था ना,उस बात के लिए जो उसमे लिखी थी…..
“पैदा तो कर दिया है,इस बेटी को ब्याह तो पाओगी नहीं बेचना हो तो कहना”
“कोई पिता अपनी बच्ची के लिए ऐसे शब्द कैसे इस्तेमाल कर सकता था माँ,तुम सही थी वोह मेरे पिता नहीं हो सकते थे…..जो इंसान नहीं हुआ, वोह क्या पिता होगा….मुझे नहीं करनी उस बारे में बात तुमसे……:(
“पर माँ सच कहना ये यही वजह थी ना…जो तुम बदल गयी थी…वोह मैं थी जिसके साथ कुछ बुरा ना हो जाए इस डर ने तुमेह ऐसा कर दिया था………मगर उस मंजिल की और दौड़ते भागते तुमने अपनी सेहत को क्यूँ नज़रंदाज़ किया ,वोह टूटे कांच की तरह ऐसी बिखरी जो कभी जुड़ नहीं पायी …मैं ही थी ना माँ वोह वजह जो इतने पैसे कमाने पर भी तुमने उनमे से खुद पर एक रुपया तक ना खर्चा………..
आज समझी मैं कोन मेरे बिस्तर के पास वोह दूध का गिलास रख देता था रात को….मैं तो चादर नीचे गिरा देती थी ना नींद में….फिर सुबह की ठण्ड से बचाने को तुम ही जग के उढाती होगी ना…कोन चुपके से मेरे बैग में खाने का डिब्बा रख देता था….सब किया माँ तुमने…और मैं नादाँ हर पल तुमसे नफरत करती रही…..
गीता दीदी ने बताया के पापा तो मुझे अपनी बेटी मानते ही नहीं थे,इसी वजह से अलग हो गए….काश मैं उनकी बेटी नहीं होती माँ…..मैं भी तो उन जैसी ही हो गई ,जो तुमसे नफरत करने लगी थी….क्यूँ मैं ही बिना बात तुमपे बिगड़ा करती थी…..हॉस्पिटल में जब शीशे के इस और तुमने मुझे खडा देखा था….तुम उठना चाहती थी माँ…मैं करीब जा कर तो बैठी तो शायद उन आंसुओं ने सब बातें कह दी थी तुमसे…भला बच्चो को कब माँ से माफ़ी मांगने की जरुरत पड़ी है….तुम चली गयी माँ….इस बार तुम्हारा तुमपे बस भी तो ना चला था…..
चलता तो शायद तुम यहीं होती मेरे करीब….सर पर हाथ रख कर बिटिया कहती….हम फिर एक दूजे का ख्याल रखते……एक बात कहूँ माँ तुम जब आंसुओं को मोती कहती थी झूठ कहती थी…यह ज़हर की बूँदें हैं जो कतरा कतरा मेरी रूह को जला देती हैं……तुम होती तो शायद इनको फिर से मोती कर देती…..
मालुम है माँ आज वोह दिन था जिसके लिए तुम जी रही थी॥ गीता दीदी ने कन्यादान किया है मेरा….और तुम्हारी ही तरह एक माँ बन कर सीख दी है….”सांस ससुर तुमसे बहुत प्यार करेंगे…उनके सम्मान में सर पर चुन्नी रखना…उनेह भगवान समझना उनेह माँ समझना….”तुम होती तो तुम भी शायद यही कहती ना माँ…..
इस बेटी में सब संस्कार तुम्हारे ही हैं…भले उनेह मुझ तक गीता दीदी ने पहुँचाया हो….वोह तुम सी ही हैं….या शायद अब उनमे तुम रहती हो……सच्ची माँ मैं सब जिम्मेदारी निभाउंगी जैसे तुम चाहती थी…..”यह जिम्मेदारियों की भीड़ तुम्हे मुझसे छीन ले गयी माँ,अगले जनम इन सब से दूर तुम सिर्फ माँ बनना ,सिर्फ मेरी माँ”
——आंच—-
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