antardwand
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उठती टीस हृदयतल से
क्यूँ ये बेरंगी लगती है
घाव अनंत देती कभी तो
उमंगों से जीवन भरती है….
कभी लगती रति कामदेव की
तो लगती कभी मधुशाला है
तिनका तिनका करके बनती
सुखद घरोंदा कभी लगती है….
लगती कभी नववधू जैसी
आलिंगन प्रेम का करती है
कभी नाचती गोपियों जैसी
मुरली मधुर जब सुनती है …..
फिर भी ये ज़िन्दगी है
जीने का दम भरती है
शुन्य से शुरू होती हुई
शुन्य पर ख़त्म होती है…….
आरती शर्मा
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