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पहर (कविता)

Aazaad bol
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क्या खूब घटा की हैं वो पहर,
जहाँ रंक भी स्वप्न को जीना चाहे,
मीन भी तोय की सीमा से उभर जाए,
क्या खूब घटा की हैं वो पहर।

मेघपुष्प की अमृत से जग फिर गुलज़ार हो जाए,
राजा-रंक की सीमा से संसार परे हो जाए,
फिर वही गीत उसी धुन से मनमोहित कर जाए,
क्या खूब घटा की हैं वो पहर जो बार-बार आती जाए।

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