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अकेला

ख़ामोशी...
ख़ामोशी...
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इन पहाडों पर बैठा
अकेलाजब भी देखता हूँ चाँद
याद अक्सर तुम्हारी ही आती है
दूर इन पहाडों के नीचे
तुम्हारे शहर की
अनगिनत टिमटिमाती रौशनियाँ
जैसे रात के अंधेरे में
टिमटिमाते असंख्य तारे
उन्ही रौशनियों में
एक चमक तुम्हारे कमरे की भी होगी
जो अपलक निहारता होगा तुम्हे
तुम्हे न सही, उस रौशनी को तो
कर ही सकता हूँ महसूस मैं
और सोंचता हूँ
पास ही हो तुम कहीं
तुम्हारे बगैर
यह पहाडों की रानी भी
नजर आती है
बदरंग मुझे
और इस भीड़ में भी
महसूस करता हूँ
ख़ुद को बेहद अकेला…

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