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बेरोजगारी…

Berojgar Yuva Sanghtan
Berojgar Yuva Sanghtan
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एक मनुष्य का जीवन कई सांसारिक चरणों का संगम होता है. पहले चरण में उसका जन्म होता है फिर बाल्यावस्था में वो बोलना, चलना, दौड़ना इत्यादि सीखता है. अगले चरण में उसकी शिक्षा-दीक्षा शुरु होती है जो बचपन से जवानी के आरम्भ तक (सामान्यतः) चलती है. तत्पश्चात जीवनयापन हेतु किसी न किसी व्यवसाय/नौकरी में जाना होता है. तब समय आता है विवाह का (अधिकतर मामलों में), उसके बाद घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियां आ जाती हैं. इनका निर्वहन करते-करते कब बुढापा आ जाता है पता भी नहीं चलता. अंतिम चरण मृत्यु है जिसके बाद कर्मों का लेखा-जोखा होता है, हिसाब बराबर हुआ तो ठीक अन्यथा पुनः इसी जीवनचक्र में लौटना पड़ता है.

इस पूरे मानव-जीवन में एक समयखंड होता है जो शिक्षाप्राप्ति संपन्न होने के बाद से जीविकोपार्जन का साधन उपलब्ध होने तक के मध्य कहा जाता है. वो है ‘बेरोजगारी’ और इसके भंवर में फंसा मनुष्य कहलाता है ‘बेरोजगार’. यद्यपि इसकी अवधि अलग-अलग मामलों में भिन्न हो सकती है परन्तु इसका प्रभाव सर्वत्र एक समान होता है. इसके नाम से एक भय होता है जिससे हर मनुष्य बचना चाहता है. उसकी आकांक्षाएं, उसके सपने सब इस कालावधि में डांवांडोल से हो जाते हैं.

ये वो दौर होता है जहाँ नकारात्मकता की भूलभुलैया में विचारबोध भटकने लगता है. निराशा सुगमता से प्राप्य वस्तु हो जाती है. सकारात्मकता जेठ की गर्मी में सूखते जाते ताल-सरोवर के समान प्रतीत होती है. हताशा मन-मस्तिष्क की इतनी परतें उभार देती है की स्वच्छ विचारों का आवागमन अवरुद्ध सा हो जाता है. चहुँओर केवल अंधकार ही अंधकार दिखाई देता है. ऐसे में किसी के सफल होने की सूचना कभी उत्साह से भर देती है तो कभी रही-सही हिम्मत को भी तोड़ देती है. मनुष्य समाज में रह के भी खुद को अकेला अनुभव करता है. हीनभावना रह-रह के उसके ह्रदय को विदीर्ण करती रहती है. उसका सारा विद्याभिमान जाता रहता है. ऐसी परिस्थिति में वो कभी-कभी अपने निकटस्थ मित्रों को भी शत्रु समझ लेने की भूल कर बैठता है. अच्छे-बुरे का फर्क कर पाना उसके लिए बेहद कठिन हो जाता है. मनुष्य आत्महत्या जैसा कदम उठाने पर विवश हो उठता है.

वस्तुतः ये वो क्षण हैं जो असहनीय होते हैं. ‘बुभूक्षितम किं न करोति पापं’ अर्थात ‘भूखा कौन सा पाप नहीं कर सकता’ की तर्ज पर कुछ युवा पथभ्रष्ट भी हो जाते हैं (जो की किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता). आज हमारा समाज जो नित्य नए अपराधों से घायल हुआ जा रहा है सर्वज्ञात रूप से उसकी एक बड़ी वजह ये भी है. आज हमारा देश प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति कर रहा है. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लगभग हरेक मोर्चे पर हमने उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं. सकल घरेलू उत्पाद में औद्योगिक क्षेत्र और सेवा क्षेत्र की भागीदारी बढ़ी है. प्रति व्यक्ति आय का स्तर भी बढ़ा है. परन्तु ये (बेरोजगारी) वो क्षेत्र है जहाँ आशातीत सुधार नहीं हुआ. रोजगार के अवसर बढ़ने के दावे अवश्य होते हैं परन्तु स्थिति ग्रुप – डी के पदों के लिए आनेवाले स्नातकों/स्नातकोत्तरों के एप्लीकेशन फॉर्म तथा दो-चार रिक्तियों के लिए भरे जानेवाले हजारों आवेदन पत्रों से स्पष्ट हो जाती है. एक उदाहरण अभी उत्तर प्रदेश में भी देखने को मिला जहाँ बेरोजगार भत्ता पाने के लिए अपना पंजीकरण कराने आई युवाओं की भारी भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को बलप्रयोग करना पड़ा. दैनिक जागरण की वेबसाईट पर उपलब्ध खबरों के अनुसार सिर्फ जौनपुर (उत्तर प्रदेश) में पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या 1.10 लाख है. इसके अलावा गया (बिहार) के अवर प्रादेशिक नियोजन कार्यालय में 40965 बेरोजगारों का नाम दर्ज है. फतेहाबाद (हरियाणा) में जिला रोजगार कार्यालय में 22 हजार 65 शिक्षित बेरोजगारों के नाम दर्ज है जिनमें से 7889 महिलाएं, 3477 अनुसूचित जाति, 3346 पिछड़ी जाति तथा 336 अंगहीन शामिल है. अमर उजाला की वेबसाईट के अनुसार ज्ञानपुर में बेरोजगारी भत्ते की चाहत लिए जिले के 17 हजार बेरोजगार दो माह के अंदर सेवायोजन कार्यालय में पंजीकृत हो गए हैं (March 13, 2012), यहाँ विधानसभा चुनाव के पूर्व के आंकड़े बताते हैं कि जिले में 13 हजार शिक्षित बेरोजगारों का रजिस्ट्रेशन था. ये सब आंकड़े तो कुछेक जगहों के हैं. सोचिये पूरे देश की स्थिति क्या है?

क्या सरकार केवल बेरोजगारी भत्ता दे के अपने कर्तव्यों को पूरा हुआ समझती है? जबकि कहीं न कहीं ये योजना मुफ्तखोरी को ही बढ़ावा देगी. माना की सभी लोगों को सरकारी नौकरियों में नहीं रखा जा सकता किन्तु स्वरोजगार के अवसर तो बढ़ाये जा सकते हैं. आसान दरों पर ऋण देकर गृह-उद्योगों/कुटीर-उद्योगों को प्रोत्साहित तो किया जा सकता है. किसी भी समस्या का हल आरोप-प्रत्यारोप नहीं है. लोकतंत्र में व्यवस्था सरकार और जनता के पारस्परिक सहयोग से चलती है. इसलिए जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की नहीं बल्कि हमारी भी है. बेरोजगारी जैसी समस्या का प्रमुख कारण विकराल रूप से बढती जनसँख्या भी है. इसके लिए हमें खुद जागरूक होना होगा. लोग बेटे की चाहत में आज भी अपने परिवार को बड़ा करते जाते हैं. इस प्रवृति को बदलना जरूरी है. इसके अलावा लोगों (ज्यादातर गरीब परिवारों में) में एक भावना ये भी होती है की अगर परिवार बड़ा होगा तो सभी काम करेंगे और आय ज्यादा होगी. इसके लिए सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा की भावना दोषी है. कृषि के प्रति युवाओं में बढती अरुचि, पारंपरिक कार्यों जैसे दुग्ध-उत्पादन, घरेलू व्यवसाय को छोड़ किन्हीं सस्ती जगहों पर मामूली कामगारों की तरह कार्य करना, इस तरह की सोच भी बढती बेरोजगारी के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है. निष्पक्षता से देखा जाये तो क्रीमी लेयर का सिद्धांत कई वर्गों की आरक्षण-प्रक्रिया में न होने से आरक्षण के सिद्धांत का लाभ वास्तविक सर्वहारा वर्ग को नहीं मिल पाता है और उसी वर्ग में एक खाई सी बन जाती है. क्योंकि इस तरह का आरक्षण भिखमंगों की भीड़ में आगे-आगे चल रहे को मिठाई बाँटने के समान हो जाता है. इससे भी लाभ इस ‘बेरोजगारी’ के दानव का ही होता है.

खैर जो भी हो, बेरोजगारी की इस विकट समस्या का समाधान अगर समय रहते न किया गया तो परिणाम देश के लिए हितकर तो नहीं ही होगा. क्योंकि आज मनुष्यों में सहनशीलता और संतोष जैसे गुणों का उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है. एक की ऊँची सामाजिक स्थिति अब दूसरे से बर्दाश्त नहीं होती. उनका मन भी उस स्टेटस को पाने के लिए व्यग्र हो उठता है. उनके अन्दर एक हूक सी उठने लगती है. वो शीघ्र-अतिशीघ्र कुछ करना चाहते हैं. यही जल्दबाजी उन्हें अनैतिक रास्तों की ओर चलने को प्रेरित करती है. अतः अब वक्त आ चुका है नींद से जागने का, उठकर कुछ करने का. यही हमारे देश और समाज के लिए अच्छा होगा.

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