आज जब मैं पुरानी पुस्तकों के पन्ने टटोल रहा था तब यकायक ध्यान एक सुन्दर रचना ने अपनी ओर खींच लिया मुझे लगा कि उसे आप सबके साथ बांटना चाहिए शायद आपको भी यह पसंद आयेΙ जब हमारे प्रियजन हमसे दूर हो जाते है उस समय मन में विषाद का पारावार उठ खड़ा होता है पर याज्ञवल्क्य कहते है ऐसा हमे उनके बिछुड़ने से नहीं अपितु अपनी स्वार्थ हानि के कारण होता है अगर किसी को पुत्रशोक है तो असल में उसे चिंता है कि बुढ़ापे में कौन उसकी सेवा करेगा अगर किसी को पत्नी का वियोग है तो असल में उसे स्त्रीसुख न मिल पाने का दुःख है ऋषि याज्ञवल्क्य ने यह अपनी अर्धांगिनी मैत्रेयी को बड़ी सुन्दरता के साथ समझाया है – अरे मैत्रेयी ! निश्चय पति कि कामना के लिए पत्नी को पति प्रिय नहीं होता किन्तु अपनी कामना के लिए प्रिय होता है निश्चय पत्नी कि कामना के लिए पति को पत्नी प्रिय नहीं होती किन्तु अपनी कामना के लिए प्रिय होती है निश्चय पुत्र कि कामना के लिए (माता- पिता) को पुत्र प्रिय नहीं होता किन्तु अपनी कामना के लिए पुत्र प्रिय होता है निश्चय धन कि कामना के लिए (मनुष्य को) धन प्रिय नहीं होता किन्तु अपनी कामना के लिए धन प्रिय नहीं होता निश्चय ही ब्रह्म कि कामना के लिए (मनुष्य को) ब्रह्म प्रिय नहीं होता किन्तु अपनी कामना के लिए ब्रह्म प्रिय होता है निश्चय क्षत्रिय(राज्य ) कि कामनाके लिए (मनुष्य को ) क्षत्रिय प्रिय नहीं होता किन्तु अपनी कामना के लिए क्षत्रिय प्रिय होता है निश्चय लोको कि कमाना के लिए (मनुष्य को) लोक प्रिय नहीं होते किन्तु अपनी कामना के लिए लोक प्रिय होते है निश्चय देवो कि कामना के लिए (मनुष्य को) देव प्रिय नहीं होते किन्तु अपनी कामना के लिए देव प्रिय होते है निश्चय भूतो (प्राणी-अप्राणी )कि कामना के लिए (मनुष्य को) भूत प्रिय नहीं होते अपनी कामना के लिए भूत प्रिय होते है निश्चय सबकी कामना के लिए (मनुष्य को) सब प्रिय नहीं होते किन्तु अपनी कामना के लिए सब प्रिय होते है
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