अपने एक पुराने ब्लॉग “याज्ञवल्क्य का उपदेश” के माध्यम से ऋषि याज्ञवल्क्य के कथनों द्वारा मोह के विषय में तो हम थोडा बहुत जान गए थे कि मोह किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति स्वार्थपूर्ति निमित्त एक जुडाव है परन्तु इस जुडाव इस आसत्क्ति से बचा कैसे जाए ??? इसके लिए एक उदहारण लेते है कि माना आपके किसी मित्र ने एक सुन्दर भवन का निर्माण कराया पर किसी कारणवश वह अभी उसमे रह नहीं सकता इसलिए वह आपको वो भवन रहने के लिए दे देता है और आप भी भवन पाकर प्रसन्न है, समय बीतने के साथ उस घर से आपकी यादे जुड़ जाती है और उसके प्रति आपकी आसक्ति भी बढ जाती है । कुछ समय बाद आपका मित्र लौटकर आता है और अपने घर कि वापस मांग करता है तो आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी ? या तो आप प्रसन्नतापूर्वक उसकी धरोहर उसे लौटा देंगे या उसे घर वापस करने से मुकर जायेंगे, पर भई घर तो उसी का है वह बलपूर्वक भी इसे लेकर ही रहेगा। पहली स्थिति में आप प्रसन्न है क्योकि आप धरोहर को उसके स्वामी को लौटाकर भारमुक्त हो गए है परन्तु दूसरी स्थिति में आपके ह्रदय में दुःख का सागर उमड़ रहा होगा वह वस्तु जो आपको प्रिय थी जिस पर आप अपना अधिकार समझने लगे थे वह आपसे बलपूर्वक छीन ली गयी । ऐसी कई परिस्थियों से हमें कई बार अपने जीवन में दो-चार होना पड़ता है बस वहां घर के स्थान पर होते है हमारे प्रियजन, हमारी धन-सम्पत्ति और मित्र कि जगह होता है इश्वर । इश्वर ही इस पूरी सृष्टी का स्वामी है हमारे माता- पिता भाई-बहन, भार्या, पुत्र, पौत्र, मित्र सब उसी के बनाये है हमारे द्वारा अर्जित संपत्ति भी हमारे पास उसकी धरोहर है तब इन सब से अलग होने का इतना दुःख इतना शोक क्यों ?? फारसी कवि उर्फी ने लिखा है – “अगर रोने से प्रियतम मिल जाता है तो इस आशा में सौ वर्षा तक रोया जा सकता है” इसलिए अगर हम प्रसन्नतापूर्वक यह स्वीकार करने का प्रयास करे कि हमारे पास रखी धरोहर अपने स्वामी के पास पहुँच गयी है तो मोह्जन्य विषाद से बचा जा सकता है ।
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