हिंदुस्तान में आजादी के बाद सबसे बड़ी ज्यादती हुई है बच्चो कर साथ। बढ़ई के बच्चो से आरी छीन ली, नाई के बच्चो से उस्तरा, किसान के बच्चे खेतो से सोना उगाने की कला भूल गए। सबको मानो एक ही रंग में रंग देना चाहा शहरीकरण ने। माओं ने बच्चो को दादा दादी से दूर कर दिया। चाचा, ताऊ, मामा, मौसी के साथ होने वाली अल्हड़ मस्ती किसी को बचपन के झरोखे में दिखाई नही देती। सिर्फ किताबों के बोझ तले दबा बचपन किसी दूसरे के देखे हुए सपनो को पूरा करने लगा है।
आखिर ये सवाल हम कब पूछेंगे की स्कूल में पढ़ाया हुआ ज्ञान हमारी वास्तविक जिंदगी में कब काम आता है। क्या किसी किताब में ये लिखा होता है की रोजाना पसीना नही बहाओगे, शारीरिक श्रम नही करोगे तो पचास की उम्र तक पहुचना बोझ हो जाएगा। सिर्फ दसवीं बाहरवी में नब्बे फीसदी अंक लाना, अच्छे कॉलेज में दाखिला लेना, बाबू साहब की नौकरी लेना ही जीवन का उद्देश्य है क्या। छेनी हथोड़े से जिस कलाकार ने खूबसूरत मूर्ति बनाई है, जिसे हम मंदिर में पूजते है, क्या वो सफल नही है जीवन में? या जिस मिस्त्री ने हमारा घर बनाया है वो सफल नहीं है? जो हाथ काले करके हमारी गाड़ी का इंजन बांध देता है क्या वो नकारा है? क्या हम बाल बनवाने के बाद जब मुस्कुराते चेहरे से नाईं को देखते हैं तो वो खुद को सफल नही मानता ?
अपने बच्चो को बाबू साहब बनाने की, एयर कंडीशन ऑफिस में बैठते देखने की जिद में हमने क्या खोया है। शहर की किसी आलीशान कालोनी में चले जाओ, शाम को बस एक कमरे में बत्ती जलती मिलेगी। अकेला बुढापा बिताने के लिए अपने बच्चो को अफसर बनाने का ख्वाब देखा था क्या? कितना अच्छा होता अगर सब बच्चे ऐसे काम करते जो उस क्षेत्र की जरूरतों से जुड़े हैं। मसलन भदोही के बच्चे कार्पेट बनाएं, सहारनपुर के बच्चे लकड़ी पर खूबसूरत नक्काशी करना सीखें। मेरठ के बच्चे बेहतरीन क्रिकेट बैट बनाने के कारखाने लगाएं। मुजफ्फरनगर के बच्चे अव्वल दर्जे का गुड़, शक्कर बनाने के लिए आधुनिक कोल्हू लगाये।
आज बेरोजगारी को समझने के लिए रोजगार की जरूरतो को समझना होगा। आज हर शहर में तेजी से घर घर मे एयर कंडीशनर लग रहे हैं, पर क्या उनकी मरम्मत करने वाले मिस्त्री भी उसी अनुपात में बढ़े हैं? पहाड़ो में होमस्टे चलाने वाले जानते है, देश-विदेश के सैलानी तरसते है ताज़ी हवा के लिए, देसी खान पान के लिए। जरूरत है मार्किट के रुख को समझने की, और उसके हिसाब से रोजगार के सृजन करने की। क्या सिर्फ स्कूली शिक्षा से हम अपनी आने वाली पीढ़ी को अपने पास रख पाएंगे। क्या हम अपने घर आंगन में आने वाली पीढ़ी की खिलखिलाहट देख पाएंगे? क्या हम बचपन के एकांत को रिश्तों की फुलवाड़ी में तब्दील कर पाएंगे? जिससे उनकी जड़ें इतनी गहरी हो अपनो की जमीन में, की कोई जवानी का तूफान उनकी आंखों में पतझड़ न ला पाए।
इन सब सवालो के जवाब हमारे आज की सोच से जुड़े हैं, जितना हम अपने आसपास की जड़ जमीन को समझने की कोशिश करेंगे। जमीन से जुड़े रोजगारो को इज़्ज़त और उचित मेहनताना देंगे, उतना हमारे आस पास की बगिया हरी भरी होगी।
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