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लोकतांत्रिक सरकार द्वारा राजतंत्रवादी या सामंती शासक की जयंती मनाना कहां तक जायज

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इतिहास की किताबों में हम पढ़ते आए हैं कि टीपू सुल्तान मैसूर का शेर था. लेकिन कोडावा समुदाय और कुछ दक्षिणपंथी संगठन के मुताबिक, टीपू धार्मिक आधार पर कट्टर था. जबरन उसने लोगों का धर्म परिवर्तन कराकर इस्लाम कबूल कराया था. कर्नाटक सरकार इस साल भी टीपू सुल्तान की जयं‍ती मना रही है. टीपू जयंती पर होने वाले समारोहों के मद्देनजर कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू में कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की गई.


टीपू सुल्तान को लेकर पिछले कुछ सालों से राजनीतिक विवाद काफी हावी रहा है. राज्य की सिद्धारमैया सरकार जहां दो साल से टीपू जयंती मना रही है, वहीं  कुछ दल टीपू को धर्मिक कट्टरवादी कहते हुए उसकी जयंती मनाए जाने का विरोध कर रहे हैं. आज से लगभग दो वर्ष पहले इसी तरह जमकर बवाल काटा गया था, जब कर्नाटक सरकार ने टीपू सुल्तान के नाम पर मैसूर के पास एक केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थापित करने की कोशिश की थी. हालांकि इन सब बातों से बेपरवाह कर्नाटक की कांग्रेस नीत सिद्धारमैया सरकार टीपू सुल्तान की 267वीं जयंती सुरक्षा और विरोध-प्रदर्शन के बीच मना रही है.


कार्यक्रम के विरोध में यहां मदिकेरी में राज्य सड़क परिवहन निगम की बसों पर पत्थबाजी की गई. कोडागू में इसी को ध्यान में रखते हुए धारा 144 लागू कर दी गई है. जबकि बेंगलुरु शहर में भारी सुरक्षा बल तैनात किया गया है. मदिकेरी में टीपू जयंती का विरोध कर रहे लोगों ने परिवहन निगम की बस पर पथराव किया, जिससे बस के शीशे टूट गए.


टीपू सुल्तान की जयंती मनाने के कर्नाटक सरकार के फैसले से राज्य में सुरक्षा व्यवस्था चौकस करने की जिम्मेदारी पुलिस पर आ गई है. राज्य में कर्नाटक राज्य रिजर्व पुलिस (केएसआरपी) की 30 टुकड़ियां, 25 सशस्त्र दल, शहर के पुलिसकर्मी और अधिकारी और होमगार्ड के जवान तैनात कर दिए गए. लेकिन कर्नाटक की कांग्रेस सरकार जिस सुल्तान के महिमामंडन में जयंती मना रही है, केंद्रीय मंत्री उसकी तुलना बाबर और तैमूर से करते नज़र आते हैं.


कुछ दिन पहले एक अन्‍य केंद्रीय मंत्री ने भी टीपू को बलात्कारी और हिंदुओं का दुश्मन बताया था. इतिहास को लेकर अलग-अलग लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है. लेकिन प्रश्न यह भी उठता है कि टीपू सुल्तान की जयंती एक चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार द्वारा क्यों मनाई जानी चाहिए? कोई सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन या एनजीओ जयंती मनाता तो कोई बात नहीं थी, लेकिन एक लोकतांत्रिक सरकार द्वारा किसी राजतंत्रवादी या सामंती शासक की जयंती मनाना कहाँ तक जायज है.


टीपू सुल्तान धर्मनिरपेक्ष था या इस्लाम का रखवाला, इस बात पर बहस करने का कोई मतलब नहीं है. उसके जमाने में सेक्युलर या एंटीसेक्युलर जैसी कोई चीज ही नहीं थी. टीपू भारत के लिए कोई स्वतंत्रता संग्राम नहीं कर रहा था. उस समय राष्ट्र की वैसी कल्पना ही नहीं थी जैसी कि आज है. अन्य राजाओं और सुल्तानों की तरह वह भी अपने राज्य की रक्षा और उसके विस्तार के लिए पड़ोसी हिंदू-मुसलमान शासकों और अंग्रेजों से युद्ध कर रहा था.


अगर हम हिंदू-मुस्लिम चश्मे से इतिहास को देखेंगे तो फिर इसका क्या जवाब होगा कि मुसलमानों, मराठों और राजपूतों ने आपस में ही कितना खून बहाया है. बूंदी के राजा बंडू जी (राव भांडा) को उसके ही दो भाइयों राव समर और राव अमर ने किस तरह खुद इस्लाम कबूल करके स्थानीय मुसलमान शासक की मदद से सन 1491 में कत्ल किया था. यहां तक कि अखंड भारत की स्थापना करने वाले सम्राट अशोक को भी अपनी गद्दी कोई भजन गाकर हासिल नहीं हुई थी. इसलिए इतिहास को इतिहास पर ही छोड़ देना चाहिए और वर्तमान के मुद्दे से वाकिफ होने की कवायद करनी चाहिए.

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