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जब जन्म हुआ इस धरती पर, माँ नाम की वो एक दाती थी,
जो सदा ही मेरे चेहरे पर रौनक-मुस्कान है लाती थी।
जब रोता था वो अपने तनअमृत का पान कराती थी,
जिसकी प्रत्येक बूँद से मेरी तृष्णा शान्त हो जाती थी।
शैशवता के मध्य समय जब चलना मैंने सीखा था,
माँ से ही वाचन, लेखन मैंने पाठन करना सीखा था।
बाल्यावस्था में जब हम कोई ज़िद पर अड़ जाते थे,
माँ ज़िद को पूरी करती थी हम ख़ुशियों से भर जाते थे।
जब बड़े हुए तो साहबज़ादे उस ममता को भूल गए,
मोहतरमा के उस प्रेमजाल में नीरवता को लील गए।
हम भूल गए वो नवम माह जब उदर में हमको रखा था,
सहती थी सारे पीड़ा-दुःख पर अंग बनाकर रखा था।
उस दिन को भी हम भूल गए माँ खाना हमें खिलाती थी,
जब तक ना सो जाऊँ तब तक लोरी के ही गुन गाती थी।
उस दिन को भी हम भूल गये जब शब्द-शब्द सिखलाया था,
अनहोनी से बचने को काला टीका हमें लगाया था।
माँ के आँखों को आँसू देकर पुण्य लाख कर भी लो तुम,
लेकिन इंसान की श्रेणी में गज जगह नहीं ले सकते तुम।
अपने हाथों से जो रोटी माँ सेंकके मुझको देती है,
वो रोटी भी मुझको बिल्कुल प्रसाद से बढ़कर लगती है।
माँ के हाथों का पानी भी गंगाजल जैसा लगता है,
माँ के कदमों की रज में भी मुझे स्वर्ग का अनुभव मिलता है।
ये देश-देश में तीरथ जो तुम करके प्राप्त ना करते हो,
शायद तुम माँ और बाप के उन चरणों को धोखा देते हो।
माँ ऐसा माध्यम है जिसके भगवान गर्भ से निकले हैं,
इसीलिये भगवान भी माँ के खुद को पुतले कहते हैं।
भगवान के दर्शन करने हों तो इधर-उधर क्यों जाते हो,
जब घर में माँ और बाप उपस्थित पुण्य क्यों नहीं पाते हो।।
-अभिषेक रुहेला
फत्तेहपुर विश्नोई, मुरादाबाद (उ०प्र०)
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