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तबाही का मंज़र

कविता
कविता
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शुरू हो गया है तबाही का मंज़र
झेलते – झेलते मानव की बुरी गतिविधियों को
प्रकृति हो गयी हैं ज़र्ज़र
वक्त अब सिखायेगा सबको
निकल अपना प्रलयंकर खंज़र .

इससे पहले की कोई साँस ले
जीने के लिए नयी आस ले
प्रकृति मिटा देगी सबकुछ
यदि मिटा नहीं मानव
और प्रकृति के बीच के फासलें.
अभिषेक अनंत

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