कविता
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लुभा रही लापता मंज़िल
राहें बिलकुल अनजान |
कोई और न जाये मुझे से आगे
और मार ले बाजी !
सोच सोच भाग रहा हर इंसान |
जब पीछे मुड़कर देखता है
पाता है स्तब्ध नीरवता
खुश होता है आगे आने पर ,
और प्रतिस्पर्धी को पीछे जाने पर,
सोचता है लक्ष्य के करीब मैं पड़ा हूँ आन |
पर अब
सोचने का वक्त कहाँ
बस भागम भाग ….
गुजरते ऐसे ही कल और आज
आधुनिकता में लिप्त भाग रहा हर इंसान|
जब सबकुछ करके थक जाता है
खुद को वहीँ पाता है
जहाँ से दौड़ा था सीना तान |
आखे में आंसू सुख गए
न मज़िल मिली , न बन सका सफल इंसान
लुभा रही लापता मंज़िल
राहें बिलकुल अनजान |
अभिषेक अनंत
कवि / साहित्यकार
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