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गीत की गंध बनकर साँस में घुलने लगी हो तुम !
प्रीत के छंद बन-बन शब्द में ढलने लगी हो तुम !!
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तुम्हारी भौंह धनुषी, भाव के
कुछ गुप्त मन्त्रों सी ,
कहे कुछ कान में अव्यक्त
उलझे वीण-तंत्रों सी |
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प्रणय के प्राण बन अभिलाष में पलने लगी हो तुम !
गीत की गंध बनकर साँस में घुलने लगी हो तुम !!
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कपोली लालिमा नभ के क्षितिज की
सांध्य वेला सी ,
लगे परिणाम रति में रत रती के
काम्य खेला सी |
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प्रणी के भंग प्रण के हेतु अब छलने लगी हो तुम !
गीत की गंध बनकर साँस में घुलने लगी हो तुम !!
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अधर-पुट पाटलों की पंखुड़ी
कुछ रागिनी छेड़े ,
उड़ेले प्राण में अमरित, श्रवण में-
बंसुरी टेरे |
सपन के पंख पर चढ़ आ सदा मिलने लगी हो तुम !
गीत की गंध बनकर साँस में घुलने लगी हो तुम !!
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( इस गीतिक रचना के अंतिम चरण में संयोग श्रृंगार की पराकाष्ठा की पंक्तियाँ स्वतः स्फूर्त हो बलात् आयातित हो गईं हैं अतः उन पंक्तियों वाले चरण को यहाँ संकोचवश प्रस्तुत नहीं कर पा रहा हूँ | आप के समक्ष प्रस्तुत यह गीतिक रचना वस्तुतः चार चरणों का है | यहाँ तीन ही चरण प्रस्तुत है | ) — आचार्य विजय ” गुंजन “
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