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अधर पुट पाटलों की पंखुड़ी …… ( परिवर्धित )

kavita
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श्रद्धेय संत लाल करुण जी के सुझावों व परामर्शों के उपरान्त इस गीत-रचना में अंतिम चरण को जोड़कर पुनः प्रकाशित कर रहा हूँ | इसके पूर्व इस गीत के तीन ही चरणों को आप के समक्ष रख पाया था जिसका ज़िक्र मैं ने पाद-टिप्पणी के तहत किया था फलस्वरूप आदरणीय करुण जी ने उस चौथे चरण को जोड़कर पुनः प्रकाशित करने का आग्रह किया था , मेरे इस उद्योग को कृपया उसी आलोक में आप सभी देखने और समझने की कृपा करेंगे |
= आप का – आचार्य विजय ” गुंजन ”

गीत की गंध बनकर साँस में घुलने लगी हो तुम !
प्रीत के छंद बन-बन शब्द में ढलने लगी हो तुम !!
=
तुम्हारी भौंह धनुषी, भाव के
कुछ गुप्त मन्त्रों सी ,
कहे कुछ कान में अव्यक्त
उलझे वीण-तंत्रों सी |
=
प्रणय के प्राण बन अभिलाष में पलने लगी हो तुम !
गीत की गंध बनकर साँस में घुलने लगी हो तुम !!
=
कपोली लालिमा नभ के क्षितिज की
सांध्य वेला सी ,
लगे परिणाम रति में रत रती के
काम्य खेला सी |
=
प्रणी के भंग प्रण के हेतु अब छलने लगी हो तुम !
गीत की गंध बनकर साँस में घुलने लगी हो तुम !!
=
अधर-पुट पाटलों की पंखुड़ी
कुछ रागिनी छेड़े ,
उड़ेले प्राण में अमरित, श्रवण में-
बंसुरी टेरे |
सपन के पंख पर चढ़ आ सदा मिलने लगी हो तुम !
गीत की गंध बनकर साँस में घुलने लगी हो तुम !!
=
प्रीत के छंद बन-बन शब्द में ढलने लगी हो तुम !!
निरंतर वात्स्यायन – सूत्र
तेरी त्रिवलियाँ बाँचे ,
बहुत गम्भीर सरि के अर्थ
नाभिल उर्मियाँ साँचे |
=
तपन उष्मा बनी हिय में पुनः जलने लगी हो तुम !
गीत की गंध बनकर साँस में घुलने लगी हो तुम !!

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