kavita
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फेक रहे बार-बार
जाल कई
भावों के !
पकड़ नहीं पाते पर
दर्द आज
घावों के !!
लिखना जो चाह रहा
लिखा नहीं
जाता है
धुंध बना चिंतन के
पट पर
लहराता है
ओर-अंत लिखने हैं
थकन भरे
पाँवों के !!
सूख गई पीड़ा जो
आँसू बन
आँखों में
तड़प रहीं इच्छाएँ
उड़ने की
पाँखों में
दर्द अब असह्य हुए
अनगिनत
अभावों के !!
दहशत का पहरा है
पीपल के
पेड़ तले
बरगद के नीचे में
अनगिन
षड़यंत्र पले
किस्से हैं पीर भरे
पोर- पोर
छाँवों के !!
फेक रहे बार-बार
जाल कई
भावों के !
पकड़ नहीं पाते पर
दर्द आज
घावों के !!
-आचार्य विजय गुंजन
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