kavita
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इन भूखे – नंगे – लाचारों का तुझे नमन पंद्रह अगस्त !
बेबसी सिसक है रही यहाँ
गलियों में फैला आर्तनाद,
आतंकवाद लपलपा जीभ
नित शोणित का चख रहा स्वाद
माँ – बहन – और बेटियाँ गाँव की गलियों में अब रहें त्रस्त !
इन भूखे – नंगे – लाचारों का तुझे नमन पंद्रह अगस्त !!
था जहां कभी सुख -शान्ति -अमन
अब बिछा वहाँ सन्नाटा है
भर क्रूर काल भय जन- मन में
ले अँगड़ाई इठलाता है
हर ओर आदमी विकल-व्यथित सड़कों पर है दह्शती गश्त !
इन भूखे- नंगे – लाचारों का तुझे नमन पंद्रह अगस्त !!
भाषाएँ पनप रहीं पल – पल
हैं आज यहाँ बर्बादी की
बारूद वादियों में गढ़ती
स्वच्छंद ऋचा आज़ादी की
इस नैसर्गिक नंदन वन के सपनों का सूरज हुआ अस्त !
इन भूखे – नंगे -लाचारों का तुझे नमन पंद्रह अगस्त !!
— आचार्य विजय गुंजन
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