Achyutam keshvam
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धुआँ उगलती चिमनियाँ, कान फाड़ता शोर।
जाती शहरी सभ्यता, अब विनाश की ओर॥
घटती जाती हरीतिम, कटते जाते पेड़।
समय अश्व है दौड़ता, मौत लगाती एड़॥
जल सम मिलता था जहाँ, दूध और मकरंद।
उस भारत में बिक रहा, पानी बोतल बंद॥
जहरखुरानी चल रही, गंग-जमुन के तीर।
युग के कान्हाँ पी रहे, अब सिन्थैटिक क्षीर॥
लौकी तोरयी तक हुई, औक्सीटोसिन युक्त।
लगता है हो जायेगा, मनुज धरा से लुप्त॥
मलयज तो सपना हुई, बहती मलज बतास।
दुर्गन्धित धरती हुई, दुर्गन्धित आकाश॥
अम्ल विषैले भूमि पर, बरसाताआकाश।
अरे पपीहे अब बता , कहाँ बुझेगी प्यास॥
गौरैया दिखती नहीं, हुए लापता गिद्ध।
नहीं सुरक्षित मनुज भी, तीर प्रदूषण बिद्ध॥
हिमगिरि से ऊँचा हुआ, पॊलीथिन गिरिश्रंग।
सुजला-सुफला हो रही, अब बंजर बदरंग॥
दूषित है वातावरण, बढ़ते जाते रोग।
जाग मनुज आये नहीं, जाकर समय सुयोग॥
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