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भारतीय संस्कृति में काम पुरुषार्थ चतुष्टय(धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष) में संम्मिलित है तो विकार चतुष्टय
(काम,क्रोध,लोभ,मोह) में भी परिगणित है।अतः स्पष्ट ही है कि एक देश,काल,परिस्थिति का पुरुषार्थ दूसरी
देश,काल,परिस्थिति में विकार-वासना में परिणित हो जाता है।काम को कहाँ प्रशस्त तथा कहाँ निषिद्ध माना
जाए यह सूक्ष्म विवेचन का विषय है।सूक्ष्म विवेचन के लिए तटस्थ-निरपेक्ष मन तथा
विषय-निष्णात अध्ययन शील बुद्धि चाहिए।क्या आज हमारे बुद्धिजीवियों के पास तटस्थ-निरपेक्ष मन तथा
विषय-निष्णात अध्ययन शील बुद्धि है।
रति चेतना का विकास नैसर्गिक है किन्तु मानव चेतना का विकास युगों में ज्ञान की परंपरा से हुआ है।
कला भी ज्ञान की परंपरा से विकसित मानव चेतना की विकसित अभिव्यक्ति है।
रति-क्रीड़ा या काम-कला के विकास का संबंध हमारी अंतश्चेतना से है किन्तु हमारी परंपरा में उसका
खुला रूप अस्वीकार्य है।हमने भोगवाद का भी धार्मिकीकरण किया है।काम स्वीकार्य है,कामुकता अस्वीकार्य।
कला वास्तविक-भौतिक की स्थूल अभिव्यक्ति नहीं वरन मन की सूक्ष्म अभिव्यक्ति है।जब एक चित्रित चिड़िया
कला मर्मज्ञ दर्शकों को चिड़िया जैसी लगती है तो यह कला है किन्तु चित्र चिड़िया ही लगता है तो यह कला
नहीं बाजीगरी है।
कला का रिश्ता मन से है।अतः कलाकार के मनोभाव उसकी कृति में आते हैं
जिन्हें कला मर्मज्ञ मन प्रथम दृष्टि में ही पहचान लेता है।शेष रहे तर्क-वितर्क तो तर्क गढ़े जाते हैं।प्रतितर्क भी
गढ़े जाते हैं।तर्क को तर्क से काटा जा सकता है किन्तु आत्मा की आवाज के आगे सब बौने हैं।
भगवान तीर्थंकर ऋषभ देव की प्रतिमा नग्न होने पर भी अश्लील नहीं लगती।गणिका शिरोपाद वस्त्र परिवेष्टित
अवगुंठनवती भी श्लील नहीं लगती।
वात्स्यायन का काम-सूत्र रंजन कला का ग्रंथ है अथवा तर्क-विज्ञान का।सबसे महत्वपूर्ण मनोभाव है।
मुख में राम बगल में छुरी नहीं चलेगी।कला का उद्देश्य आनंद हो न कि व्यवसाय।कला बिके पर खरीददार
कलानुरागी ,कला-व्यसनी हों न कि यौनानुरागी व यौन-व्यसनी।
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