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आह्वान

Achyutam keshvam
Achyutam keshvam
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कौन यवनिका के पीछे से छिपा हुआ,
मेरे मन में करुणा को उपजाता है।
सुना-सुना कर रुदन त्रस्त मानवता का,
रह-रह कर ये क्राँति अनल भड़काता है।(1)

यह मेरी मनभ्राँति मात्र है या सच है,
निश दिन हाहाकार सुनायी देता है।
धूल-धूसरित लू लपटों से घिरा हुआ,
यह सारा संसार दिखायी देता है।(2)

मान-मनौवल-मनुहारौ से मुश्किल में,
जैसे-तैसे निदिया निकट बुलाता हूँ।
चींख गुँजती है अन्तर में अनायास,
चौंक-चौंक तब शैया से उठ जाता हूँ।(3)

उठकर घंटों वातायन से अम्बर को,
घोर यामिनी में उडुगण मैं तकता हूँ।
तृसित नयन ये मानवता के आस लिए,
देख रहे हैं लेकिन क्या कर सकता हूँ।(4)

स्वर्ण-थाल सा दिप-दिप करता प्राची से,
किरण करौं से सूरज मुझे हिलाता है।
नयन निमीलित करता तनिक विहाग लिए,
मारुत आकर हौले से कह जाता है।(5)

तुझे देखने नहीं सपन परियों वाले,
वे देखें जो भू पर जीते मरने को।
तुझे सुनाने सुधा-मंत्र हैं धरती को,
तू आया है काल भाल पग धरनेको।(6)

देख दूब की नौंकों पर जो चमक रहे,
ये आँसू हैं अमर-लोक के अमरौं के।
नित्य पौंछता रवी किरण-रूमाल लिए,
खेल देखता जग कलियों के भ्रमरौं के।(7)

और साँझ को वह चंदा मुस्काता है,
धवल चाँदनी से सारा जग जाता भर।
इंगित करता उठ रे अमर प्रेम निर्झर,
तोड़ बन्ध भू-भर पर झरना झर-झर-झर।(8)

और अमा की विभावरी काली-काली,
अट्टाहस भीषण करती है मतवाली।
कहती राज करेगा भू पर तम केवल,
खुली चुनौती देती बजा-बजा ताली।(9)

छीज रहे रिश्तों की करुण कहानी के,
समाचार द्रग अनचाहे पढ़ जाते हैं।
मैं विवश खींचता पीछे को रह जाता हूँ,
अनायास पग आगे को बढ़ जाते हैं।(10)

किन्तु न मैं अब तनिक पगों को रोकूँगा,
विद्रोही मन को ही वाणी स्वर दूँगा।
तमावर्त जीवन से रौशन चिता भली,
क्रान्ति अनल में ही अपने को झौकूँगा।(11)

ज्वलित मशाल सरीखा यह जीवन होगा,
दीप जलाने हैं मुझको तो घर-घर में।
अँधियारे को ठौर मिले ना छिपने का,
उजियारा हो आँगन चौबारे घर में।(12)

वह सुकरात पीएगा कारा में विष भी,
उस ईसा को सूली पर चढ़ना होगा।
फेरी देगा बन प्रकाश का वितरक जो,
सूरज सा तपना तम से लड़ना होगा।(13)

उर बसंत की आस लिये यह नंदन-वन,
सूख रहा है नागफनी उग आयी है।
जूही-चंपा और मालती सहमी है,
कमल गुलाब और किसलय मुरझायी है।(14)

अब तो निश्चय शंख बजाना ही होगा,
अब तो भैरव राग सुनाना ही होगा।
धरती माँ का ऋण उतारना है यदि तो,
नाग-यज्ञ का मंत्र गुँजाना ही होगा।(15)

मोह जेवड़ी बाँध न पायेगी मुझको,
पहन चुका हूँ अब तो केसरिया बाना।
रोओ पीटो हृदय खूब चिल्लाओ तुम,
देना हो तो दो उलाहना या ताना।(16)

मुझे न रोको मुझको आगे जाने दो,
मुझे गिरानी है कितनी ही दीवारे।
कीतने बंद कपाट खोलने बाकी हैं,
मचल रहे भीतर आने को उजियाले।(17)

नव प्रभात नव विवस्वान के दर्शन को,
घोर तिमिर में दीपक बन जीना होगा।
सुधा दान जग को देगा जो अटल व्रती,
सब अघ गरल उसी को हँस पीना होगा।(18)

अब चलता हूँ क्राँति अनंतर आउँगा,
सूरज का उपहार संग मैं लाउँगा।
नहीं स्वार्थ निज लखो मुझे अब मत रोको,
आज चाह कर भी तो रुक ना पाऊँगा।(19)

सौरभमय हो जायेंगे ये दिक्-दिगन्त,
हर क्यारी में सुरभित सुमन सजाने हैं।
हर देहरी पर मुस्कायेगा अब सूरज,
हर उर में सुर-धनु से स्वपन जगाने हैं।(20)

नीरद बनकर डगर-डगर हर नगर-नगर,
प्रेम-फुहारौं से धरती सरसाऊँगा।
घृणा-द्वेष से तप्त विश्व मरुस्थल वत,
प्रेम-पयोद झरे बरखा बन जाऊँगा।(21)

हर आँगन में सजा रँगोली सतरंगी,
घृणा-द्वेष की होली आज जलानी है।
अनामिका से मानवता के माथे पर,
सम्वेदन की रोली आज सजानी है।(22)

हर झंझा से आज निडर टकराना है,
हर आँधी के मुख को मोड़ दिखाना है।
परिवर्तन का चक्र घुमाना है अब तो,
खद्योतौं को रवि का बल बतलाना है।(23)

तान चला सिर स्वाभिमान से अंबर में,
मुझे न चिन्ता विजय-पराजय की मन में।
दुहू भाँति है लाभ आज मेरे कर में,
हार मिले या विजय हार हो गर्दन में।(24)

भाग चलेगा छोड़ धरा के आँचल को,
या तो तम को एसा पाठ पढ़ा दूँगा।
मध्य मार्ग में छोड़ लक्ष्य सम्पाती सा,
मुझे न आना जीवन होम चढ़ा दूँगा।(25)

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