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यक्षिणी हो या परी हो तुम।
सत्य या जादूगरी होत तुम।
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सृष्टि -शिल्पी रच तुम्हें विस्मित हुआ,
कौन की कारीगरी हो तुम।
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हो सहज इतनी कि अब मैं क्या कहूँ,
कृतयुगी अचरज भरी हो तुम।
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बदली-बदली सी लगे दुनियाँ मुझे,
जानतीं बाजीगरी हो तुम।
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मिष्ठ मिश्री कभी खट्टी इमलियाँ,
कभी मिर्ची चरपरी हो तुम।
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मीन नैना पीन कुच बिम्बोष्ठी,
सुभग सुन्दर रसभरी हो तुम।
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तीक्ष्ण प्रतिवादी भयंकर हो बड़ी,
तर्क की इक कर्तरी हो तुम।
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बोल दो ना कब बनोगी पीतकर,
अब तलक तो अन्वरी हो तुम।
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हाल दिल का एक पल में भाँपतीं,
डाल दृष्टी सरसरी हो तुम।
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चाहता सुलझो उलझती ओर ही,
पेहेली उलझन भरी हो तुम।
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मन से तन से मखमली ओ रूपसी,
पर जुबाँ की खरखरी हो तुम।
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ताज तो मुर्दा है तुम जीवंत हो,
पूर्णतःसँगमरमरी हो तुम।
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विश्व रौशन जब तलक तुम सामने,
चमचमाती मरकरी हो तुम।
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मन मुलायम ओढ़तीं कुलिशावरण
नारियल में ज्यों गरी हो तुम।
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फैंकता लंबी जो कोई सिरफिरा,
पल में कर देतीं घरी हो तुम।
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छाछ को भी चूँसती हो फूँक कर,
दूध से लगता जरी हो तुम।
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सद्गगुणों की हो सहेली सत्वरा,
बस व्यसन अवगुण अरी हो तुम।
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खोज खोटें मैं तुम्हारी थक गया,
मानता बिल्कुल खरी हो तुम।
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अल्प विचलन भी गवारा है नहीं,
नीतिपथ की अनुचरी हो तुम।
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अंत से आगाज़ करने में कुशल,
अनवरत अंताक्षरी हो तुम।
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मरु-ह्रदय भर सिन्धु तुमने कर दिया,
प्रेम की वह निर्झरी हो तुम।
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सिर दिआ है ओखली में तो प्रिये,
मूसलों से क्यों डरी हो तुम।
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मिलन कालिक फगुनई बौछार प्रिय,
विरह आँसू बन ढरी हो तुम।
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केश घन की छाँह करके नेह से ,
देह को देती तरी हो तुम।
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चौंकती तुम छिपकली को देखकर,
देख झींगुर थरथरी हो तुम।
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वादा करके भी न आयीं तो लगा,
कोई नेता खद्दरी हो तुम।
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बाँट लो गम हमको अपना मानकर,
टीस जो मन में धरी हो तुम।
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काम की उद्दाम नद में तैरती,
यूँ लगे इक जलपरी हो तुम।
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कभी झाड़ो ज्ञान के उपदेश तो,
कभी लगता सिरफिरी हो तुम।
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गालपर मेरे तमाचा जब कसा,
तब लगा था बर्बरी हो तुम।
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माँगता हूँ मधुकरी यह सोचकर,
नेह से पूरी भरी हो तुम।
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चाहने वाले तुम्हारे हैं बहुत,
जाने क्यों हम पर मरी हो तुम।
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कामना उपवन सुवासित कर रहीं,
एक पुष्पित वल्लरी हो तुम।
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जब मिलीं चलती मिलीं चलती रहीं,
जिन्दगी यायावरी हो तुम।
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