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क्या ये पर्वत चढ़ पाऊँगा

Achyutam keshvam
Achyutam keshvam
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क्या ये पर्वत चढ़ पाऊँगा .

मन मुझसे कहता फिर-फिर है.
झुक जाये ,क्या तेरा सिर है .
स्वप्न अपूर्ण अभीतक चिर है .
कह अलंघ्य हुआ क्या गिरि है .
लेकिन कबतक रोज-रोज के ,
तूफानों से लड़ पाऊँगा .
क्या ये पर्वत चढ़ पाऊँगा .१.

यूँ तो सब संकल्प अटल हैं.
मन-प्राणों में तप का बल है .
सदा दूर भ्रम-भीत सकल है.
लक्ष्य प्राप्ति हित मन बेकल है .
छल-प्रवंचना-मृग मरीचिका में ,
पर कबतक अड़ पाउँगा .
क्या ये पर्वत चढ़ पाऊँगा .२.

दीपक बनकर प्रतिपल जलना.
मौन हिमल सा तिल-तिल गलना.
स्वयं सुनिश्चित पथ पर चलना.
अपने ही मन को नित दलना.
इस असह्यतम अग्निपन्थ पर,
कबतक निर्भय बढ़ पाउँगा.
क्या ये पर्वत चढ़ पाऊँगा .३.
अच्युतम केशवम एक बैठक ग्राम्य विकास पर चर्चा और अभीप्रेरण

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