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पत्थर की इक नाव बनी थी और रेत की थी वह नदिया रामलुभाया जिसमें बैठे अपना चप्पू चला रहे थे

Achyutam keshvam
Achyutam keshvam
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अच्युतं केशवम की कविता
पत्थर की इक नाव बनी थी
और रेत की थी वह नदिया
रामलुभाया जिसमें बैठे
अपना चप्पू चला रहे थे

हमने देखीं रंगबिरंगी
कई मजारें देशभक्ति की
जिन्दा पीर भटकते जिनमें
अंट-शंट बलबला रहे थे.
पत्थर की इक नाव बनी थी
और रेत की थी वह नदिया
रामलुभाया जिसमें बैठे
अपना चप्पू चला रहे थे .

पूजा के दीपक की गर्मी
पत्थर को पिंघलाती होती!
जग कहता ठाकुर की आँखों
में आंसू छलछला रहे थे.
पत्थर की इक नाव बनी थी
और रेत की थी वह नदिया
रामलुभाया जिसमें बैठे
अपना चप्पू चला रहे थे .

दिल जिसके मानी दर्पण था
अब वह दर्पन चटक गया है
जिसमें तेरे -मेरे साझे
कुछ सपने कुलबुला रहे थे.
पत्थर की इक नाव बनी थी
और रेत की थी वह नदिया
रामलुभाया जिसमें बैठे
अपना चप्पू चला रहे थे .

अब हँस लें रोलें या गालें
ये इनपर निर्भर करता है
थी उड़ान की उमर ,परों को
खुद ये चकुले जला रहे थे .
पत्थर की इक नाव बनी थी
और रेत की थी वह नदिया
रामलुभाया जिसमें बैठे
अपना चप्पू चला रहे थे .

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