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पर लगता है रही पुरानी,बहुत पुरानी अपनी यारी

Achyutam keshvam
Achyutam keshvam
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सूरज की वेदी पर जिस दिन,धरा चंद्र ने भाँवर डाली।
धरा सुहागिन हुई अमा की,रात कटी फैली उजियाली।
उस उजियाली में ओ प्रियतम,मेरी आँखों के दर्पण में,
उभरी थी तस्वीर तुम्हारी,उभरी थी तस्वीर तुम्हारी,
यूँ तो केवल एक बरस का,ही तो परिचय हुआ हमारा।
पर लगता है रही पुरानी,बहुत पुरानी अपनी यारी।(1)

सात दिवस की विभीषिका के,जल थल भू पर चिह्न शेष थे।
महाकाल ने अभी-अभी तो,स्वयं समेटे प्रलय केश थे।
एक बार फिर से प्राची से,धरती का सौभाग्य उगा तब,
नील लोम वाली भेड़ों की,अपने तन पर शाल लपेटे,
शतरूपा बनकर प्रकटी जो,मेरे सन्मुख छवी तुम्हारी।
यूँ तो केवल एक बरस ………………………………..(2)

जल सिमटा हिम नद सागर में,सप्त बरन धरती मुस्कानी।
मैने बाँधी पाग केसरिया,तुमने ओढ़ी चूनर धानी।
हिमल शिलाओं से प्रतिमाएँ,सागर के तट पर तस्वीरें,
इक-दूजे की हमने तुमने, ही तो सबसे प्रथम रचीं थीं,
ये एलोरा और अजंता अभी हाल की कृतियाँ सारी।
यूँ तो केवल एक बरस ………………………………..(3)

पहले पहल धरा पर उतरी ,छः ऋतुओं की अनुपम डोली।
दहके बहके लहके चहके,दोतन-दोमन तब तुम बोलीं।
मन में पीर पपीहे वाली ,बौराये हम आम्र-कुंज से,
नाद करें बादल सम भू पर,आओ इठलायें मोरों से
गायन वादन नृत्य कलाएँ ,जग पाया कर नकल हमारी।
यूँ तो केवल एक बरस ………………………………..(4)

संस्कार वे तत्व बन गये,जिनसे नयी पीढ़ीयाँ सींचीं।
धर्म-सेतु है कर्म-पंथ है,हमने जो रेखाएँ खींचीं।
जिज्ञासा से समाधान तक, तुम्हें याद अपनी यात्राएँ,
पहिए और आग की खोजें,रामायण और वेद ऋचाएँ,
उपजीं थीं क्या नहीं बताओ,अपनी भाव भूमि से सारी।
यूँ तो केवल एक बरस ………………………………..(5)

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