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अंधेर नगरी चौपट राजा। नाटक खोरों पर कैंडलमार्च का फैशन इस कदर सर चढ़ कर बोल रहा है कि उगते सूरज को धता बता रहे हैं। अनेक ऐसे लोग जिन्होंने बुद्धिजीवी होने का तमगा बख्शीस के रूप में प्राप्त किया है, या खरीदा है, कमेटियां बना कर बच्चों के लिए नैतिक शिक्षा अनिवार्य करने की वकालत कर रहे हैं। सुना है मेडिकल छात्रों को भी नैतिक शिक्षा दी जाएगी। इन पुस्तकों को शायद इम्पोर्टेड प्लास्टिक पेपर पर छापेंगे जिससे यह प्रभाव उत्पन्न कर सकें। दुनिया को कभी अपने ज्ञानालोक से प्रकाशित करने वाले मेरे देश में आज शिक्षा खुद अपनी परिभाषा ढूढ़ रही है।
कहाँ से शिक्षा लेते हैं नौनिहाल? क्या स्कूल मदरसे ही एक मात्र विकल्प हैं? हमारा परिवार, परिवेश, समाज, अखबार, पत्रिकाएं, रेडियो, टी वी, सिनेमा सभी तो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से विविध प्रकार की पाठ्य सामग्री प्रस्तुत करते हैं। समाज किस दिशा में जायेगा यही पाठ्य सामग्री निर्धारित करती है। अनेक विद्वानों का स्पष्ट मत है कि शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का सशक्त माध्यम है। बच्चों के दिमाग पर पकड़ बनाने का यह कार्य ( जिसे मैं यहां शिक्षा नहीं कहूंगा )कुछ अज्ञानी अपने अज्ञानवश कर रहे हैं, और कुछ मैकाले और लियोनी के वंशज किसी षड्यंत्रकारी योजना के तहत।
कुछ उदाहरणों से तथ्यों को मजबूती देने का प्रयास करना चाहता हूं। आप सहमत होंगे कि विज्ञापन हमारे मनोमस्तिक पर गहरी छाप डालते हैं।बच्चों पर तो इनका जादुई असर होता है। देखिए कुछ बानगी—
समोसा, कचौरी खाने से परेशान हुआ एक व्यक्ति एक सैशे को पानी में डालकर पीते ही फिर से समोसा खाने को तैयार हो जाता है। हरी दवा की कुछ बूंद पानी में डालकर पीते ही एक मोटा तोंदू व्यक्ति फिर से लड्डू ठूसने लगता है। क्या यही ज्ञान हम बच्चों ( बड़ों को भी) को देना चाहते हैं। क्या इस स्तिथि में यह बताना आवश्यक नहीं कि यह गरिष्ट भोजन अब आपका शरीर पचा नहीं पा रहा । इनको खाना आपके लिए जरूरी नहीं है, बल्कि ये आपके लिए नुकसान दायक हैं। और देखिए एक पुलिस वाला और योगा करता व्यक्ति मिठाई देखकर अपने पर काबू नहीं रख पाता। क्या अनुशासन छोड़ स्वाद का गुलाम बनने की शिक्षा देना हमारा उद्देश्य है?
रातों रात काले सांवले व्यक्ति को गोरा बनाने की क्रीम पाउडर के विज्ञापन क्या हमारे ज्ञान विज्ञान और मान्यताओं को मुंह नहीं चिढ़ाते। क्या यह विविधता, जो एक वैज्ञानिक सच है, का आदर करने की हमारी सीख का विरोध नहीं है?
हर दूसरे चौथे वर्ष पाठ्यक्रम में उलट फेर का नाटक करने वाली सी बी एस ई, और बच्चों की आवश्यकता के अनुकूल पाठ्क्रम बनाने का ढिढोरा पीटने वाली एन सी ई आर टी को अपने किए कराए पर पानी फिरता क्यों नहीं दिखता। जनन अंगों की बनावट तथा जनन स्वास्थ्य एनसी ई आर टी की कक्षा 10 के महत्व पूर्ण पाठ हैं, जिनके स्पष्ट अधिगम उद्देश्य हैं। पूरे देश में अब एनसी ई आरटी पुस्तकें अनिवार्य हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि जनन अंगों की संरचना , कार्य प्रणाली और जनन स्वास्थ्य विषयक भ्रामक प्रचार प्रसार इन पुस्तकों पर भारी है। रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड हो या दुकान बाजार, हर दीवार पर लिखे, हर अखवार, हर पत्रिका, में छपने वाले इन अवैज्ञानिक विज्ञापनों से मुंह मोड़ना क्या शिक्षा के पथ से विचलन नहीं है? कोई तो देखेगा भाई, क्या हो रहा है मेरे देश में। क्यों सब मौन हैं?
नैतिक शिक्षा किताबों के पढ़ने और बेंत लेकर रटाये जाने से आने वाली चीज नहीं है। बच्चे के परिवेश से जुड़ी हरेक वस्तु, प्रत्येक घटना नैतिक शिक्षा का प्रयोगात्मक पाठ्यक्रम है।अपने परिवेश में व्याप्त दुर्गन्ध को समाप्त किये बिना नैतिक शिक्षा की सुगंध को महसूस नहीं किया जा सकता। विनोद भारद्वाज
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