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शब्दों का मेला

darpan
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चश्मा उतार कर भी
त्रिआयामी लगते हैं कुछ शब्द
धुंधले, मगर बोलते- बतियाते
साहित्य, विज्ञान सब
याद है उन्हें
आज तक नहीं भूले हैं वह
आर्कमिडीज का सिद्धांत
डुबाने पर
किसी भी ठोस की तरह
विस्थापित करते हैं जल
आँखों से
अपने भार के बराबर
जगह जगह छिपाया है इनको
कुछ को अलमारी में
बिछे कागज़ के नीचे,
हस्ताक्षर बन उभर आए हैं
मेरे प्रमाण पत्रों
और सभी कागजात में
कुछ को टेबल पर यूँ ही
छोड़ दिया था,
दबाया भी नहीं था
पेपर वेट से
वह कपूर की गोली की तरह
उड़ गए हवा में
कुछ को फूलों के बीजों के साथ
बो दिया था गीली मिट्टी में
अमलतास, गुलमोहर बन
रंग भर रहे है क्षितिज में
बोल बोल कर

डॉ. विनोद भारद्वाज

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