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यह कहानी बहुत ही दिलचस्प है कि कैसे विभिन्न रसायनों के अणुओं और परमाणुओं की जोर आजमाइश, लुका छिपी, अठखेलियों और कभी गलबहियों और कभी पीठ दिखाने की आदतों ने
दधकते समुन्दर में, अरबों बरस पहले , बेजान दुनिया में जान डाल दी। पहली बार ओपेरिन और हाल्डेन ने सुनाई तो ठीक ठीक लगी, मगर मिलर और यूरे ने सर्टिफिकेट दिया ‘सच्ची सी’ का तो और दिलचस्पी बढ़ गयी। वास्तव में इस कहानी का तोड़ भी नज़र नहीं आता क्योंकि ऐसी अनेक कहानियों में से और कोई दमदार थी भी नहीं जो साइंस के चश्मे से भी उतनी ही साफ दिखे।
“जीवन” को टटोलने के लिए अगर किसी इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से भी दस बीस लाख गुना बेहतर खुर्दबीन से जांच पड़ताल की जाय तो भी कुछ अलेदा दुनिया नहीं दिखेगी। वही गिने चुने जाने पहचाने अणु और परमाणु अपनी उसूलों भरी धमाचौकड़ी से बेजान से ढेले या सूप में जान डाल देते हैं।
केमिस्ट्री ने फिजिक्स के झूले में एथलेटिक्स दिखाते दिखाते बायोलॉजी पैदा कर दी। अरबों बरस के लंबे सफर में जीवन दुनिया भर में पसर गया। समुन्दर, नदी नाले, मैदान, पहाड़ सब में जीवन रच बस गया। इस लम्बी कहानी में कैसे एक नन्हा जानदार सा कतरा इंसान बन गया पता नहीं। कुछ कुछ पता है लेकिन इस कहानी में भी कई पेच हैं, कई यू टर्न हैं और बहुत से गैप। लेकिन एक बात सोलह आने सही है कि जान हो या जान से उपजी चेतना, हैं सब अणुओं परमाणुओं की कारगुजारियों से जन्मा खेल तमाशा। यहां एक जुदा से लगने वाले जुमले का जिक्र बेमानी नहीं होगा। किसी ने कहा है” हम वही हैं, जो हम खाते हैं। ” सच ही तो है हमारी सोच, हमारे खयालात इन्ही अणुओं परमाणुओं की उसूलों भरी परेड से बना इंद्रधनुष है। हां, वह जो अनजान सी “जान” इन अणुओं परमाणुओं से मनमाफिक परेड कराती है वही है हमारी जान की जान।
सलाम जिन्दगी।
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