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मैं हूँ ना! : लघुकथा

Awara Masiha
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लिखने से भी क्या कोई फ़ायदा हो सकता है. सारा दिन उल्टा सीधा लिखते रहते हो ….. समय और कागज ख़राब करते रहते हो. क्या तुम कोई ढंग का काम नही कर सकते. इतना लम्बा भाषण देकर पिताजी एक मिनट चुप रहकर बोले…”अब चुप ही खड़े रहोगे…या कुछ कहोगे भी ?” “मगर पिता जी ! लिखना मेरा शौक है….” अभिषेक इतना ही बोल पाया था की उसकी बात को बीच में काटकर कहने लगे “हे भगवन! कब इस उल्लू को अक्ल आयेगी. तुम्हारे साथ के लड़को को देखो..और तो और मोहल्ले के बंटी को ही देख लो…..तुम से पढने आता था…कितना बुद्धू था…मगर मेहनत की उसने और आज …मल्टीनेशनल में है..इंजीनियर हो गया है अब वो…पता है तुम्हे कुछ?” शायद पिता जी और भी कुछ कहते मगर उसी समय उनका ड्राईवर रमेश आकर उनसे कुछ रूपए मांगने लगा और पिता जी उसकी तरफ मुखातिब होकर बोले अभी तो महीना पूरा होने में बहुत दिन है. रमेश ने कहा “जानता हूँ ..मालिक, …..मगर पैसों की बहुत जरुरत है…! बेटे को ताईक्वांडो में दाखिला कराना है..उसी के लिए चाहिए.” “मगर ताईक्वांडो में दाखिले की क्या जरूरत उसे अच्छा पढाओ लिखाओ …….और वो तो वैसे भी काफी तेज है पढाई में….कोई फ़ायदा नहीं ये सब चक्करों में पढने का.“ पिताजी ने अनायास ही उसे अपनी कीमती राय दे दी थी. “साहब उसे ताईक्वांडो का बहुत शौक है, अच्छा खेलता भी है….और साहब मैं नहीं चाहता की कल बेटा बड़ा होकर ये सोचे की उसे अगर अपने पिता का साथ और पिता से सुविधाए मिली होती तो वो आज कुछ और होता. इसीलिए मैं हमेशा उसका हौसला बढाता रहता हूँ.” रमेश ने जबाव दिया. पिताजी एक मिनट चुप रहे और फिर पुछा, “कितने रूपए चाहिए?” “साहब अगर दो हजार मिल जाते तो कम चल जायेगा.” यह कहकर रमेश आशा भरी नजरों से देखने लगा. और पिता जी ने भी उसे दो हजार रूपए देकर कहा जाओ और गाड़ी निकालो मुझे बहार जाना है. उसके जाने के बाद अभिषेक भी अपने कमरे में जाने लगा कि तभी पिता जी ने आवाज दी और बोले “अभिषेक तुम्हे कोई प्रकाशन नहीं मिल रहा तो किसी मैगजीन या अखबार में कोई कॉलम क्यों नही लिखना शुरू कर देते…पैसे न भी मिले तो तुम चिंता मत करो…मैं हूँ ना !

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