रैन बसेरा
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चारदीवारी की बन्दिशों में कैद हैं अरमानों के सपनें
मन के मयूर पंखों से जीवन के उस पार आती हूं तुमसे मिलने
न खुद की चाह, न मन की सोच
बस समाज के जंजीरों में जकड़ी हैं जीवन की रस्में
अनाम रिश्ते की डोर में जकड़ें हैं हम दोनों
हालात के लाचारीयों से मजबूर काफी दूर खड़े हैं मानों जैसे हों बेगाने
रूकती, थकती सांसों की डोर में पिरोकर मुझे जीते हो तुम
मैं हर वक़्त तुम्हारी लाचारीयों पर बेबस निगाहों से ऐसे देखता हूं मानो हूं अंजाना
मन की व्यकुलता, जीवन की चंचलता
वक़्त के दराज में है ऐसे कैद हैं मानों मुठ्ठीयों में रेत
इन बन्दिशों के पार भी तो जाना होगा इक दिन
समाज, सभ्यता, संस्कार की चिता पर आखिर कब तक जलते रहेंगे अरमानों के सपने
चारदीवारी के उस पार है जीवन का बासंति रूप
अभी नहीं तो क्या हुआ, आउंगी चारदीवारी को लांघकर तुमसे मिलने।।
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