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भ्रूणविज्ञान का अध्ययन

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भ्रूणविज्ञान : श्री मदभागवतम् {Embryology in Bhagwatam}
भ्रूणविज्ञान (Embryology) का अर्थ है अपने अपरिपक्व अवस्था में गर्भ में  मानव जीव का  अध्ययन ।
यह आमतौर पर कहा जाता है कि यूरोपीय देशों ने मानव जीवन के विकास को समझने का वैज्ञानिक अध्ययन किया तथा  भारत में इससे सम्बन्धी कोई खोज नही  हुई  . भारतीयों ने केवल जीवन दर्शन (philosophy) के बारे में सोचा.
कहा जाता है की भ्रूणविज्ञान पर प्राचीनतम शोध  वैज्ञानिकAristotle (अरस्तू) (384 – 322 ई.पू.) ने की ।
महाभारत  लगभग 5561 ईसा पूर्व लिखी गई तथा श्री मदभागवतम् लगभग 1652 ईसा पूर्व लिखी गई मानी जाती है ।
महाभारत  तथा भागवत में भ्रूणविज्ञान से सम्बंधित दुनिया भर की जानकारी भरी पड़ी है ।
हमारे महान ऋषियों ने यह जान लिया था की स्त्री व पुरुष के स्राव (secretions) द्वारा रज/डिंब  (ovum) तथा शुक्राणु  (sperm) के मिलन फलस्वरूप भ्रूण (Fetus) की उत्पति होती है तत्पश्चात जीव पनपता है ।
महाभारत के शांति पर्व 117,301, 320, 331, 356 तथा भागवत 3/31 में वर्णन मिलता है की  शुक्र का एक कण शोणित के साथ क्रिया कर कलल  का निर्माण करता है ।   शुक्र  तथा शोणित को क्रमश : शुक्राणु (sperm) और अंडाणु  (ovum) तथा कलल को युग्मनज या निषेचित डिंब (Zygote)  भी कहा जाता है ।
भागवत में कहा गया है कि केवल एक ही रात में अर्थात लगभग 12 घंटे के समय में ही कलल  का निर्माण हो जाता है ।
 कलल  आगे 5 रातों के पश्चात बुलबुले  (bubble stage) रूप में आ जाता है (भागवत ३/३१/२ )
आधुनिक विज्ञानं का भी यही मत है ।  दस दिन में बेर के समान कुछ कठिन हो जाता है तथा 11 वें दिन का भ्रूण अंड (oval shaped) की भांति दिखाई पड़ता है ।
इस प्रकार भ्रूण में 15  दिनों में होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों (microscopic changes) का वर्णन मिलता है । आधुनिक विज्ञानं को ये सब जानने के लिए न जाने कोन  कोन सी पचासों मशीनों का प्रयोग करना पडता है ।
भागवत 3/31/3 में लिखा है प्रथम महीने के अंत तक भ्रूण का सिर विकसित हो जाता है ।
आधुनिक विज्ञान में 30-32 दिन के भ्रूण का सिर साफ़ साफ़ देखा जा सकता है ।
आगे  लिखा है  कि गर्भावस्था के दूसरे महीने में भ्रूण के हाथ-पाँव  और शरीर के अन्य भागों को विकसित होने लगते है ं
गर्भावस्था के तीसरे महीने में  नाखून, बाल, हड्डियां और त्वचा विकसित होने लगती है तथा जननांग विकसित होने लगते है तथा कुछ समय पश्चात गुदा (Anus ) का निर्माण होता है ।
 आधुनिक मत के अनुसार 8 सप्ताह (56 दिन =  लगभग 2 माह ) के भ्रूण  में जननांग पाए जाते है तथा पूर्णतया प्राप्त करने में तीसरा महिना आ ही जाता है ।
तथा आगे लिखा है चोथे महीने में सात प्रकार की धातुओं (tissues) का निर्माण होता है जो इस प्रकार है :
 रस  (tissue fluids), रक्त  (blood), स्नायु  (muscles), मेदा  (fatty tissue), अस्थी (bones), मज्जा  (nervous
tissue) तथा शुक्र (reproductive tissue). आधुनिक विज्ञानं का भी यही मत है ।
पांचवे महीने में शिशु में भूख तथा प्यास विकसित होती है ।  हालांकि कुछ समय पूर्व तक आधुनिक विज्ञान इसे समझ नही पाई थी परन्तु नवीनतम प्रयोगों के आधार पर यह सत्य सिद्ध होता है | देखें कैसे ?
जातविष्ठा (मल)   पेट में ग्रहणी से मलाशय तक पाया जाता है जिसमे स्वयं भ्रूण  के ही  बाल (lanugo hairs) तथा उपकला कोशिकाएँ  भी  शामिल होती  है ।   ये सभी  भ्रूण की आंत तक एमनियोटिक द्रव निगलने के फलस्वरूप ही पहुँच सकते हैं  । एमनियोटिक द्रव (amniotic fluid)  वह द्रव है जिसमे भ्रूण स्थित  होता है  । बाल (lanugo hairs) और उपकला कोशिकाएँ भ्रूण की  त्वचा द्वारा ही एमनियोटिक द्रव में गिरती है जिसे भ्रूण ग्रहण करता है ।  और  इन  बालो (lanugo hairs) तथा उपकला कोशिकाओं का शिशु की आंतों में पाया जाना  जठरांत्र संबंधी मार्ग  के कार्य सुचारू कार्य करने को दर्शाता है ।
 अर्थात पांचवे महीने में शिशु का जठर तंत्र तथा आंते आदि कार्य करने लगते है तथा यह भी निश्चित है  की शिशु का एमनियोटिक द्रव ग्रहण करना एक स्व  प्रक्रिया  नही  है अपितु  शिशु की भूख तथा प्यास को दर्शाता है । शिशु को भूख तथा प्यास की अनुभूति होने के फलस्वरूप ही वह एमनियोटिक द्रव ग्रहण करता है ।
छठे महीने में शिशु गर्भ में घूर्णन करने लगता है अर्थात करवट लेने लगता है तथा कई प्रकार के ढकाव (एमनियोटिक द्रव/उतकों  आदि ) द्वारा घिरा रहता है
सातवे महीने में शिशु का मस्तिष्क कार्य करने लगता है और 7 महीने का शिशु व्यवहार्य हो जाता है ।
आधुनिक विज्ञान इस तथ्य को हाल ही में हुए एक प्रयोग के पश्चात समझ पाई है ।
श्री कृष्ण के भांजे अभिमन्यु ने युद्ध कला गर्भ में ही सीखी थी यह बात भी इससे सिद्ध होती है यहाँ देखें ।
श्री कृष्ण के भांजे अभिमन्यु की कथा की पुष्टि
अभिमन्यु ने युद्ध कला गर्भ में सीखी इस तथ्य को विदेशी तो दूर हम भारतीय भी अब तक मिथ्या मानते थे । किन्तु आधुनिक विज्ञान में सिद्ध होने के पश्चात हमने इसे माना ।
कितने मुर्ख है हम ।
हमने  200 वर्षों तक गोरो के डंडे खाए  है , गुलाम मानसिकता इतनी जल्दी थोड़ी जाएगी !!!
हमारी प्राचीन परंपराओं में गर्भवती स्त्री को अच्छी पुस्तके तथा रामचरितमानस आदि पढने के सलाह दी जाती थी । इससे भी यह स्पष्ट है की हमारे पूर्वज इस तथ्य को जानते थे की  6-7 माह का शिशु सिखने लगता है  अर्थात व्यवहार्य  हो जाता है ।
आगे कहा  गया है कि भ्रूण अपनी माँ द्वारा किये गये भोजन आदि के  पोषण से ही बढ़ता है. तथा शिशु स्वयं द्वारा किये गए  मूत्र और मल तथा एमनियोटिक द्रव के बिच ही बढ़ता रहता है ।
कुछ वर्ष पूर्व तक आधुनिक विज्ञान का मानना तथा की शिशु अपनी माता  के अपशिस्ट  पदार्थ में पलता है किन्तु अब यह सिद्ध हो चूका है की वह अपशिस्ट  माता का नही वरन स्वयं शिशु का ही होता है ।
8वे श्लोक में कपिल मुनि लिखते है  कि शिशु अपनी पीठ और सिर के बल पर ही  स्थित होता है .
9वे श्लोक  का कहना है कि शिशु साँस लेने में असमर्थ  होता है  क्योंकि शिशु एमनियोटिक द्रव में निहित होता है  जिसके कारन साँस लेने की आवश्यकता नही होती .शिशु को ऑक्सीजन और अन्य पोषक तत्व माँ के खून द्वारा प्राप्त होते  है .
किन्तु कितने दुःख की बात है आज के अपनी स्त्रियों के गुलाम पुरुषों के राजमहल में अपनी माँ के लिए  एक कमरा भी नही ?? डूब मरो जल्दी से जल्दी !!!
श्लोक  22 में  कपिल मुनि लिखते  है कि 10 महीने में भ्रूण को नीचे की और प्रसूति वायु द्वारा धकेला जाता है ।
इस प्रकार गर्भ में भ्रूण से शिशु निर्माण की प्रक्रिया सूक्ष्म रूप से भागवत 2/10/17 से 22, 3/6/12 से 15 तथा 3/26/54 से 60 में मिलता है जिसमे  मुह,नाक,आँखे,कान, तालू, जीभ और गला आदि शामिल है । तथा (3/6/1 से 5) तक में  जिव निर्माण में योगदान देने वाले 23 गुणसूत्रों का भी वर्णन मिलता है ।
आधुनिक विज्ञान में कहा गया है  एक शुक्राणु के 22 गुणसूत्र, एक अंड के साथ मिलकर भ्रूण निर्माण करते है ।  बिलकुल यही तथ्य आज से लगभग 7500 वर्ष पूर्व लिखी गई महाभारत में भी मिलता है ।
भागवत (2/10, 3/6, 3/26) में लिखा है जननांग तथा  गुदा आदि के पश्चात ह्रदय का निर्माण होता है । यह तथ्य   1972 में H.P.Robinson द्वारा  Glasgow University में ultrasonic Doppler technique के माध्यम से सिद्ध किया  जा चुके है ।
भागवत में लिखा है दोनों कानो में प्रत्येक का कार्य ध्वनी तथा दिशा का ज्ञान करना है यह तथ्य 1936 में Ross तथा Tait  नामक वैज्ञानिकों द्वारा सिद्ध किया गया की दिशा का गया आन्तरिक कान में स्थित Labyrinth नामक संरचना द्वारा होता है । इसका वर्णन ऐतरेय उपनिषद (लगभग 6000 से 7000  ईसा पूर्व ) 1/1/4 तथा 1/2/4 में भी मिलता है ।
ऐसे कई प्रश्न  है जिसका उत्तर आधुनिक विज्ञान के पास नही है क्योंकि उनके पास केवल भोतिक ज्ञान है अध्यात्मिक नही ।  हमारे ऋषियों के पास प्रत्येक प्रश्न का उतर  था  क्योकि वे भोतिक के  साथ  अध्यात्मिक ज्ञान में  भी धुरंदर थे ।
उदहारण के लिए : हम जानते है की निषेचन के पश्चात करोडो शुक्राणु, एक मादा अंड की ओर दौड़ते है किन्तु केवल एक ही शुक्राणु अंड में प्रवेश करने में सफल होता है और भ्रूण का  निर्माण करता है ।
आधुनिक विज्ञानियों के पास इसका कोई उतर नही की करोडो की  दौड़ में एक ही जीता बाकि मुह देखते रह गये ?
परन्तु ऋषियों के पास इसका सॉलिड उतर था । उन्होंने कहा जीवात्मा अमर है जैसा की श्री कृष्ण ने गीतामें भी कहा है ।  मृत्यु  के पश्चात आत्मा भोतिक शरीर को  छोड़कर भुवर्लोक में गमन करती है । वर्षा द्वारा पुनः पृथ्वी पर आती है वर्षा जल पेड-पोधों द्वारा अवशोषित किया जाता है  इस प्रकार जीवात्मा खाद्यान्न (food grain) में प्रवेश करती है। जो भोजन के साथ पुरुष के शरीर में पहुँचती है और शुक्राणु बनता है ।
ओर जब करोडो शुक्राणुओ की दौड़ प्रारंभ होती है वही एक शुक्राणु विजयी होता है जिसमे प्राण/जीवात्मा निहित होती है । वही जीवआत्मा  (जो परमआत्मा (ईश्वर) का अंश है) उस शुक्राणु का मार्ग दर्शन कर विजयी बनाती है ।
जबकि आधुनिक विज्ञान का कहना है की यह एक अवसर मात्र ही है की कोई एक जीत  गया ।
इसी प्रकार का एक और प्रश्न  है की प्रसव (delivery) के लिए कोन उतरदायी है विज्ञान के पास दो उतर है या तो माँ या फिर स्वयं शिशु ।
यदि माँ प्रसव के लिए उतरदायी है तो प्रत्येक प्रसव काल (gestation period) में परिवर्तन क्यों ?
और यदि शिशु उतरदायी है तो सातवे महीने में शिशु का मस्तिष्क कार्य करने लगता है फिर भी वह दो महीने और गर्भ में क्यो ठहरता है ?
ऋषियों का कहना है की जब शिशु में प्राण प्रवेश करता है तब वह एमनियोटिक द्रव से बाहर निकने की चेष्टा करता है और दुनिया में आता है ।  इस प्रकार प्रसव, प्राण पर निर्भर करता है न की माता पर और  न ही शिशु पर ।
भागवत 3/26/63 से 70 में लिखा है की जब शिशु का प्रत्येक अंग आदि कार्य करने प्रारंभ कर देते है तब तक भी वह द्रव से बाहर नही निकलता जब तक अंततः  उसके चित में क्षेत्रज आत्मा का प्रवेश नही होता ।
उपरोक्त समस्त अध्यन microscope आदि के अभाव में नही किये जा सकते । इससे यह भी स्पस्ट है की उस समय microscope जैसे यन्त्र भी थे !
कोशिका विभाजन
भागवत 3/6/7 में लिखा है की
भ्रूण सर्वप्रथम एक बार विभाजित होता है,
ऐसा दस बार होता है
और फिर तिन बार और होता है ।
उपरोक्त को तिन अलग अलग बार लिखा गया है क्योंकि विभाजन तीन परतों/चरणों में होता है ।
प्रत्येक विभाजन में पहले निर्मित कोशिकाओं से संख्या दुगुनी हो जाती है ।
इन्ही बढ़ती हुई कोशिकाओं से भ्रूण के शरीर का विकास होता है ।
आधुनिक विज्ञान में इन तीन चरणों को ectoderm, endoderm तथा mesoderm कहा जाता है ।
मात्र  साफ़, महंगे विदेशी  वस्त्र पहनने तथा टाई लटका लेने से कोई बुद्धिमान नही हो जाता ।  उपरोक्त सारे अनुसन्धान हमारे ऋषि लोगो ने भगवा धारण किये ही किये थे ।
इससे भी अधिक जानकारी के लिए श्री मदभागवत पढ़े ।
आज यदि हमारे ग्रंथो पर पुनः शोध आरंभ की जाये  तो भारत निश्चय ही पुनः विश्व गुरु  सकता है ।
किन्तु हो उल्टा ही रहा है विदेशी हमारे ग्रंथो पर शोध करने में डूबे हुए है ये एक दक्षिण अफ्रीका की वेब साईट है
http://www.hinduism.co.za/index.html
जो सनातन धर्म को समर्पित है इस साईट में जा कर जरा बायीं और मेन्यु तो देखें ।
.co.za domain south africa का है ठीक उसी प्रकार जैसे co.inindia के लिए है यहाँ देखें :
http://www.africaregistry.com/
इसी प्रकार एक अमेरिकन stephen knapp ने वेदों आदि पर गहन शोध की है :
http://stephen-knapp.com/
25-30 पुस्तकें भी लिख चुके है .
                          – अजय एहसास
                            सुलेमपुर परसावां
                      टाण्डा (अम्बेडकर नगर)

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