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भ्रष्टाचार बनाम मानवता

modern social problems
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आज मैंने अपने एक मित्र का लेख उनके फेसबुक पेज https://facebook.com/rahul.mukeriya/posts/779077758861622 पर पढ़ा जो कि भ्रष्टाचार करने वाले टीटीई के खिलाफ रेलवे द्वारा की जाने वाली कार्रवाई से सम्बंधित था. पढ़कर काफी अच्छा लगा पर इसके साथ ही कुछ विचार भी मन में आने लगे कि आखिर भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी क्या है? क्या सिर्फ किसी के पास ड्यूटी पर ज्यादा कैश होना उसके भ्रष्टाचारी होने का सबूत है? और इससे भी बढ़कर क्या केवल सरकारी कर्मचारी द्वारा नियत शुल्क से अधिक पैसे लेना भ्रष्टाचार है और निजी क्षेत्र में भ्रष्टाचार नहीं है?
इस पूरे प्रकरण में कहीं भी ये नहीं बताया गया है कि शिकायतकर्ता गोविन्द के पास स्लीपर का टिकट था या जनरल का. क्या वह जनरल को स्लीपर बदलवाना चाह रहा था या फिर अगर उसके पास स्लीपर का ही टिकट था तो वेटिंग था या कन्फर्म. और अगर कन्फर्म टिकट था तो उसको टीटीई से सीट मांगने की क्या ज़रूरत थी जबकि कन्फर्म टिकट वालों को उनकी सीट पर बैठने का हक़ होता है जबकि वेटिंग टिकट वालों को यात्रा की अनुमति सिर्फ सीट उपलब्ध होने पर ही दी जाती है. और ये तो सभी जानते हैं कि वेटिंग टिकट पर यात्रा नहीं की जा सकती और इसी नियम के अनुपालन में ऑनलाइन वेटिंग टिकट स्वयं कैंसिल हो जाता है. हालांकि केवल आपात स्थिति में आप अपनी वेटिंग श्रेणी के कोच में यात्रा कर सकते हैं तथा स्टेशन दर स्टेशन सीट उपलब्ध होने पर आपको सीट दी जा सकती है जो की रेलवे के विवेक पर आधारित है और यह आपका हक़ नहीं है. परन्तु आजकल लोग वेटिंग पर यात्रा करना अपना हक़ समझने लगे हैं. हालांकि नए नियमो के अधीन विकल्प योजना का लाभ लिया जा सकता है. इस स्थिति में टीटीई के भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार तो वेटिंग टिकट पर यात्रा करने वाले लोग ही हैं.
रही बात निजी क्षेत्र की तो हाल ही में मैं अपने एक मित्र की माता जी के लिए इलाहाबाद के एक प्रसिद्ध अस्पताल में अपोइन्टमेंट लेने गया था वहा जो कुछ भी देखा उसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया.
सरकारी स्कूलों से डॉक्टर की डिग्री लेने वाले डॉक्टर अपने निजी क्लिनिक्स में मरीज देखते हैं, और उनसे मिलने के लिए मरीजो को काफी दिन पहले से ही अपोइन्टमेंट लेना पड़ता है, फोन पर अपोइन्टमेंट का अतिरिक्त चार्ज लिया जाता है, इतना ही नहीं मरीज की हालत कैसी भी हो निर्धारित सीमा से अधिक होने पर उस मरीज का नंबर नहीं लग सकता चाहे वो कितना भी गिडगिडाता रहे. इससे भी मजेदार बात तो ये है कि अगर किसी तरह उसका जुगाड़ हो भी जाए तो उसे निर्धारित शुल्क से अधिक कीमत अदा करनी पड़ती है. क्या ये भ्रष्टाचार नहीं है?
अपने कमीशन के लिए डॉक्टर्स द्वारा अनावश्यक रूप से करवाई जाने वाली जाचें क्या भ्रष्टाचार का रूप नहीं है?
और तो और डॉक्टर साहब का समय तो पहले से ही 9.00 बजे से 2.00 बजे तक होता है पर 11.00 बजे से पहले उनके दर्शन ही नहीं होते. क्या ये भ्रष्टाचार नहीं है?
इन सबसे निजात पाने के लिए सरकार ने कई बार सरकारी डॉक्टर्स की निजी प्रैक्टिस पर रोक लगाई परन्तु उन्होंने नौकरी छोड़ने तक की धमकी दे डाली आखिर सरकार ने डॉक्टर्स के सामने घुटने टेक दिए.
इसके अलावा मेरा एक सवाल कथित जागरुक मीडिया से भी है जो कि कभी कालाहांडी या कभी कानपुर तो कभी अन्य सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा दिखाने में लगा रहता है तो मैं उन मीडिया वालों और विडियो बनाने वाले व्यक्ति से जानना चाहूँगा कि क्या उनके लिए कालाहांडी में 10 किमी तक पत्नी की लाश को कंधे पर रखकर चलने वाले व्यक्ति की मदद करने से ज्यादा उस व्यक्ति का वीडियो बनाना ज्यादा ज़रूरी था या फिर उस विडियो बनाने वाले व्यक्ति को 10 किमी तक कुछ नहीं मिला जिससे की वह उस शख्स की मदद कर पाता और आखिर में उस व्यक्ति की मदद तो सरकारी तंत्र ने ही किया. क्या विडियो बनाने वाले मीडियाकर्मी या व्यक्ति के पास कोई वाहन नहीं था जिससे वह उस असहाय व्यक्ति को उसके गंतव्य तक पंहुचाने के लिए कुछ व्यवस्था कर पाता या कुछ रुपये देकर उसके लिए वाहन की त्वरित व्यवस्था करके फिर सम्बंधित विभाग में दोषियों शिकायत करता या फिर उसकी मानवता मर चुकी थी सिर्फ टीआरपी के चक्कर में उस दुखी व्यक्ति का विडियो बनाने के लिए.
क्या मीडिया ने कभी कोई ऐसी मुहीम चलाना ज़रूरी नहीं समझा जिससे कि निजी अस्पतालों के बाहर भटक रहे मरीजों को डॉक्टर्स की तानाशाही से निजात मिल सके. और उन्हें इस तरह की समस्याओं से निजात मिल सके खासकर दूर दराज़ के मरीजों को.
सरकार को चाहिए की सरकारी कालेजों में प्रवेश लेते ही मेडिकल कालेज द्वारा एक बांड भरवाया जाए जिसके तहत कम से कम 2 वर्ष तक सरकारी अस्पताल में सक्रिय सेवा देने वालों को ही डॉक्टर की उपाधि दी जाए.

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