Menu
blogid : 2537 postid : 43

मीडिया के बर्ताव में सुधार ज़रूरी

modern social problems
modern social problems
  • 44 Posts
  • 50 Comments

मीडिया छोटी से छोटी घटना का शीघ्र कवरेज, उसका प्रसारण या प्रकाशन करके खुद को सबसे तेज़ साबित करने में लगी रहती है.
यहाँ तक की प्रशासन के हर काम में कमी ढूंढना तो मीडिया की आदत सी बन गयी है,लेकिन वो मीडिया ये क्यों भूल जाती है हर व्यक्ति अपने अपने क्षेत्र में माहिर होता है.१२१ करोड़ की आबादी को सुरक्षा प्रदान करना वो भी उस वक़्त जब देश के भीतर कई ऐसे गद्दार मौजूद हैं जो अपराधियों को शरण देना अपना फ़र्ज़ समझते हैं.
किसी मेले में या स्टेशन पर या किसी और भी वाली जगह पर जहां कई लोग आ जा रहे है वहां पर किसी के बैग में बम है या हथगोला क्या किसी भी समाचार चैनल या अखबार के पास ये पता करने की कोई मशीन है? है तो तत्काल मीडिया को उसे प्रशासन को सौप देना चाहिए ताकि प्रशासन उन्नति करे.
ध्यान से देखा जाए तो मेलों में गाँव के कई गरीब आते हैं जो जाने अनजाने गलत रास्तों से गुजरते हैं अगर पुलिस वाले टाईट ना रहे तो किसी के गायब होने की खबर फैलाए में मीडिया पीछे थोड़े ना रहेगी.पुलिस अगर कुछ ज्यादा टाईट हो तो भी मीडिया प्रशासन पर ही फब्तियां कसती है.
मुंबई हमलों में मीडिया ने कई बार कमांडो कारवाई न करने पर प्रशासन पर तल्ख़ टिप्पणियां की थी लेकिन क्या मीडिया ने कभी ये सोचा है की अगर कमांडो कार्रवाई में किसी के परिवार का कोई सदस्य मारा जाता तो उसके घरवालों पर क्या बीतती.खासकर तब जब वो सदस्य उस घर का इकलौता कमाने वाला होता.
टिपण्णी करनी ही थी तो उस वक़्त मनसे या शिव सेना पर करते.क्योंकि उससे ठीक पहले मुंबई से उत्तर भारतियों को पीट पीट कर खदेड़ा जा रहा था.क्योंकि वो हमला तो मुंबई पर ही था तो अपनी मुंबई को बचाने के लिए उन्हें आगे आना चाहिए था लेकिन वो लोग तो जाने कहाँ जा कर छुप गए थे. क्या मीडिया इससे बेखबर थी.
खैर जो भी हुआ था बुरा तो था लेकिन एक हिसाब से अच्छा भी हुआ का से कम उसी बहाने उत्तर भारतीयों पर हमले तो थम गए.वरना उस वक़्त तो बिचारे उत्तर भारतीय बुरी तरह पीटे जा रहे थे.
और हाँ, मीडिया अक्सर बात करती है पुलिस के सेना के समान ईमानदार न होने की.तो उसके जवाब में बस इतना कहना है क्या मीडिया ने पुलिस कालोनी और मिलिटरी कालोनी को कभी गौर से देखा है?पुलिस वालों की कालोनी की दीवारें ऐसी होती हैं जिनके प्लास्टर जगह जगह से उखाड़े होते है,मकान का कौन सा हिस्सा कब गिर पड़े कुछ पता नहीं.वहीँ मिलिटरी कालोनियों में हर साल रंगाई होती है दरवाजे,बल्ब आदि बदले जाते हैं. क्या मीडिया ने इस बात पर कभी ध्यान दिया है कि पुलिस वालों के बच्चों के लिए सरकार ने कितने स्कूल बनवाए है आर्मी स्कूलों की तर्ज़ पर? हर छावनी क्षेत्र में के सेना का अस्पताल होता है जिसमे अति उच्च सुविधाए प्रदान की जाती हैं, पुलिसवालों के लिए ऐसे कितने अस्पताल है? सेना के काम के लिए रक्षा मंत्रालय,पुलिस वालों के लिए गृह मंत्रालय क्यों?
इन सारे तर्कों को ध्यान से देखकर कोई भी ये समझ सकता है की सेना ईमानदार और पुलिस बेईमान क्यों हो जाती है.
मैं मीडिया से बस इतना ही कहूँगा कि प्रशासन पर फब्तियां कसने की बजाय मीडिया को प्रशासन का सहयोग करना चाहिए.आखिर दोनों को एक दुसरे की ज़रुरत है.उन्हें प्रतिद्वंदी नहीं बल्कि सहयोगी होना चाहिए.
इस देश का कोई भी प्राणी गरीब का गला दबाकर पैसा वसूलना नहीं चाहता लेकिन जब ऊपर से डिमांड आएगी तो कोई क्या कर सकता है?
अब ये तो मीडिया ही कर सकती है न कि जनता को सही नेता को चुनने के लिए प्रेरित करे.
लेकिन हकीकत में मीडिया ऐसा कुछ बहुत कम ही करती है.जब जिस पार्टी की सरकार होती है तो मीडिया उस पार्टी के खिलाफ कुछ भी छपने से परहेज़ करती है.क्यों?
मीडिया को निडर और निष्पक्ष होना चाहिए न कि राजनीतिक पार्टियों की तरह दलबदलू.
अभी मेरे जान पहचान के एक रिपोर्टर ने मुझे बताया कि चूँकि वो रिपोर्टर है इसलिए उसे फ़ोन ऑफ करने की इज़ाज़त नहीं होती है क्योंकि कोई भी घटना बताकर तो घटती नहीं.तो ऐसे रिपोर्टरों को बस ये कहूँगा कि यही फिकर तो अधिकारियों को भी होती है क्योंकि कब,कहाँ हत्या,बलात्कार,चोरी डकैती और भी कई तरह की घटना हो जाये कहा नहीं जा सकता.ऐसे में आधी रात को घटने वाली घटना के घटना स्थल पर प्रशासन को थोड़ी देर हो जाए तो मीडिया को प्रशासन का सहयोग करना चाहिए.
लेकिन हाँ साथ में प्रशासन की लीपा पोती जैसे किसी बलात्कार की शिकार महिला के मेडिकल परीक्षण में विलम्ब के लिए प्रशासन को बख्सना भी नहीं चाहिए……………………………………………

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh