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(जब से दुनिया बनी है। किसी न किसी रूप में दो वर्गों में बंटी है। एक वर्ग जो संपन्न होता है। दूसरा वो जो आजीविका के लिए संपन्न लोगों पर निर्भर रहता है (निर्धन)। ये निर्भरता तब तक बनी रहती है, जब तक वो किसी भांति से संपन्न वर्ग में शामिल न हो जाएं, अन्यथा येे निर्भरता सदैव बनी ही रहती है। ये उनकी मजबूरी ही है कि वो संपन्न वर्ग के अधीन रहते हैं। कमजोरी ही उनको दासकर्म के लिए बाध्य करती है। निर्धन वर्ग सदैव संपन्न होकर दासकर्म से मुक्ति पाना चाहता है। ऐसा न होने पर वो विद्रोह करने से भी नहीं चूकता पर इस विद्रोह का अंत विनाश ही है। समझदार लोग या तो किसी भी भांति से संपन्न वर्ग में शामिल हो जाते हैं, भले ही इसके लिए उनको कु-कर्म ही क्यों न करना पड़े, वरना वो दासकर्म को भाग्यरेखा मानकर स्वीकार करने को बाध्य हो जाते हैं। प्रस्तुत कविता ऐसी ही एक युवती की है जो देवदूत से संपन्न होने का वरदान मांगती है।)
एक लड़की बहुत दूर काम करने को जाती थी।
नदी, पहाड़, वन पारकर जीविका अपनी पाती थी।
उसका एक छोटा झोपड़ा था, किसी तरह बांसों पर खड़ा था।
घर में उसके पिता, अनुज और बूढ़ी दादी थी।
लड़की मानों निपट कुंआरी, नहीं हुई अभी शादी थी।
एक शाम वो लौट रही थी, निर्जन प्रांत में पेड़ हिला।
उसने डरकर जाना-समझा, सम्मुख उसे (एक) देवदूत मिला।
देवदूत ने उसे समझाया, डरो नहीं मैं मित्र हूं।
मैं शांति से यहां रहता, एकांतप्रिय चरित्र हूं।
अब लड़की की आस जगी, एक मुझे वरदान दो।
हमारे भले दिन आ जाएं, खाना-कपड़ा-मकान दो।
देवदूत मुस्काया सुनकर (उसकी) भोली बात।
तेरे जीवन से नहीं हटेगी, दु:ख की काली रात।
मजबूरी से तुम जैसों की जग (रहा) गतिमान है।
स्वार्थ लोलुप सत्ताओं का मनचाहा सम्मान है।
देवदूत का ज्यों ही वरदानी-सा कर उठा।
त्यों ही लड़की का मन ही मन विद्रोही-सा स्वर उठा।।
जानकर मन की गति देवदूत बोला। कौमार्या क्यों तेरा, सहज में ही यूं मन डोला।
तुम पर ये अन्याय तना है पर द्रोह तुम्हारा पंथ नहीं।
तुम हटोगे कोई अन्य आएगा (दासकर्म को), इसका कोई अंत नहीं।।
क्रांतिपथ (पर) क्षुधा का विचलन, सत्ता का भी जोर है।
दम तोड़ती इच्छाओं का, सुनों ऐसा ही शोर है।
मैं आश्वस्त तू धैर्यवान-समझदार एक छोरी है।
ये तेरा कर्मयोग नहीं किंतु तेरी कमजोरी है।
सुनकर ये कथा-व्यथा लड़की पथ (पर) गतिमान हुई।
देवदूत की उजली (सी) काया, क्षण में अंतर्धान हुई।
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