इस रोज की भागदौड़ से रुककर कभी सोचा है मैं कहाँ हूँ? मैं कहाँ होना चाहता हूँ, क्या करना चाहता हूँ, क्या होना चाहता हूँ और इसके विपरीत मैं यहाँ क्यों हूँ, मैं कहाँ नहीं होना चाहता हूँ, मैं क्या नहीं करना चाहता हूँ, ……. मैं घर में हूँ….ऑफिस में हूँ…..मंदिर में हूँ, गिरजा में या मस्जिद में हूँ, जहाँ सुख है मैं वहाँ होना चाहता हूँ…..जहाँ मेरा प्रिय है वहाँ मैं होना चाहता हूँ…..मैं आनंद मनाना चाहता हूँ, मैं घर में या ऑफिस में क्यों हूँ, क्या यहाँ आनंदित हूँ, मैं क्या हो गया हूँ और क्या यहाँ संतुष्ट हूँ…. अरे तुम सोचोगे क्या बेवकूफी है ये अरे मैं हूँ तो हूँ..धारा में बह रहा हूँ, बहता जा रहा हूँ, आसमान में रोज तारे चमकते हैं, बादल आते हैं सुंदर आकृतियाँ बनाते हैं, बरस जाते हैं, मेरे प्रिय ने आज क्या कहा? उसकी प्रार्थना क्या थी? मैं जहाँ हूँ वहाँ क्या और कैसा हूँ? नहीं सोचा, मैं तो बस बहा जा रहा हूँ समय की धारा में, जैसे ढोर को हकाल दिया वो चारा खाने चला गया, गोधुलि में वापस आ गया। तुम अपने आपको धारा में बहता पाकर उसकी रूप हो गए। भूल गए कि तुम तुम नहीं एक वृहद विश्व हो, तुम मानव हो। तुम पाषाण नहीं तुम पशु नहीं। तुम तो मानव हो पक्षी की तरह आकाश में उडऩा है तुम्हें, आकाश की अतल गहराई नापना है तुम्हे, अब तुम सोचोगे इस सब का क्या मतलब? बात को समझने के लिए तुम्हें अपने आप को टटोलना पड़ेगा, जो तुम में होकर भी तुम से विलग हो गया है उसे ढूंढना होगा, उससे पूछना होगा क्यों भाई प्रसन्न तो हो न! लुटेरा गजनवी जब मृत्युशैया पर पड़ा था तब पछता रहा था, मिन्नतें कर रहा था, रहम की दुआएं मांग रहा था…हाय, पूरी जिंदगी लूट-पाट में लगा दी। आज देखता हूँ, कितना कुछ था मेरे पास, यही रहता राज करता और जीवन के सुख का भोग करता। मेरी हूर सी पत्नियाँ, ऐशोआराम, कितना कुछ था पर मैं वहाँ लूटपाट में लगा रहा। आज मौत आ रही है। ये सब यहाँ छूट रहा है। मेरी शैयासुख देने वाली स्वर्गीय सुंदरी पत्नियाँ बूढ़ी होकर पहचान में नहीं आतीं। आँखे दुर्बल, देह दुर्बल न खा पाता हूँ न पी पाता हूँ, बस मौत को आते देख रहा हूँ। हाय कोई मेरी जवानी लौटा दो, मौत को हटा दो। मैं अब लड़ूँगा नहीं लूटूँगा नहीं। बस राज करूँगा और सुख भोगूँगा। लुटेरा गजनवी तड़प-तड़प कर मर गया। अब क्या सोच होनी चाहिए? जीवन में जितना काम आवश्यक है उतना ही सुखभोग भी वर्ना कल पछताना न हो…….
इस रोज की भागदौड़ से रुककर कभी सोचा है मैं कहाँ हूँ? मैं कहाँ होना चाहता हूँ, क्या करना चाहता हूँ, क्या होना चाहता हूँ और इसके विपरीत मैं यहाँ क्यों हूँ, मैं कहाँ नहीं होना चाहता हूँ, मैं क्या नहीं करना चाहता हूँ, ……. मैं घर में हूँ….ऑफिस में हूँ…..मंदिर में हूँ, गिरजा में या मस्जिद में हूँ, जहाँ सुख है मैं वहाँ होना चाहता हूँ…..जहाँ मेरा प्रिय है वहाँ मैं होना चाहता हूँ…..मैं आनंद मनाना चाहता हूँ, मैं घर में या ऑफिस में क्यों हूँ, क्या यहाँ आनंदित हूँ, मैं क्या हो गया हूँ और क्या यहाँ संतुष्ट हूँ…. अरे तुम सोचोगे क्या बेवकूफी है ये अरे मैं हूँ तो हूँ..धारा में बह रहा हूँ, बहता जा रहा हूँ, आसमान में रोज तारे चमकते हैं, बादल आते हैं सुंदर आकृतियाँ बनाते हैं, बरस जाते हैं, मेरे प्रिय ने आज क्या कहा? उसकी प्रार्थना क्या थी? मैं जहाँ हूँ वहाँ क्या और कैसा हूँ? नहीं सोचा, मैं तो बस बहा जा रहा हूँ समय की धारा में, जैसे ढोर को हकाल दिया वो चारा खाने चला गया, गोधुलि में वापस आ गया। तुम अपने आपको धारा में बहता पाकर उसकी रूप हो गए। भूल गए कि तुम तुम नहीं एक वृहद विश्व हो, तुम मानव हो। तुम पाषाण नहीं तुम पशु नहीं। तुम तो मानव हो पक्षी की तरह आकाश में उडऩा है तुम्हें, आकाश की अतल गहराई नापना है तुम्हे, अब तुम सोचोगे इस सब का क्या मतलब? बात को समझने के लिए तुम्हें अपने आप को टटोलना पड़ेगा, जो तुम में होकर भी तुम से विलग हो गया है उसे ढूंढना होगा, उससे पूछना होगा क्यों भाई प्रसन्न तो हो न! लुटेरा गजनवी जब मृत्युशैया पर पड़ा था तब पछता रहा था, मिन्नतें कर रहा था, रहम की दुआएं मांग रहा था…हाय, पूरी जिंदगी लूट-पाट में लगा दी। आज देखता हूँ, कितना कुछ था मेरे पास, यही रहता राज करता और जीवन के सुख का भोग करता। मेरी हूर सी पत्नियाँ, ऐशोआराम, कितना कुछ था पर मैं वहाँ लूटपाट में लगा रहा। आज मौत आ रही है। ये सब यहाँ छूट रहा है। मेरी शैयासुख देने वाली स्वर्गीय सुंदरी पत्नियाँ बूढ़ी होकर पहचान में नहीं आतीं। आँखे दुर्बल, देह दुर्बल न खा पाता हूँ न पी पाता हूँ, बस मौत को आते देख रहा हूँ। हाय कोई मेरी जवानी लौटा दो, मौत को हटा दो। मैं अब लड़ूँगा नहीं लूटूँगा नहीं। बस राज करूँगा और सुख भोगूँगा। लुटेरा गजनवी तड़प-तड़प कर मर गया। अब क्या सोच होनी चाहिए? जीवन में जितना काम आवश्यक है उतना ही सुखभोग भी वर्ना कल पछताना न हो…….
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