आबू गुसरखाने में देख रहा था। फातिमा यानी आबू की शरीकेहयात यानी उसकी बेगम यानी उसकी पत्नी जब से ब्याहकर आई है ये बात कहती रही है कि कम से कम दरवाजा तो लगवा दो कब तक गुसरखाने के दरवाजों को हाथों से उठाकर रख यहां-वहां रखते रहेंगे? यहां भारी सीलन भी है। नहाओ या पाखाना फिरो तो सिर पर पानी टपक पड़ता था। इससे सर्दी भी हो जाती थी भरी गर्मी हो या कंपकंपाती सर्दी, बारिश में तो हालत और खराब थी। गुसरखाने में ऊपर लगी टंकी से पानी रिसता था। दीवारों से लगातार पानी रिस रहा था। सीलन से पूरा गुसरखाना और पाखाना नमीदार हो रहा था। टंकी तो हटाई नहीं जा सकती थी। अब कुछ तो करना ही था सोचते तो वक्त ओ वक्त गुजर गए।
फातिमा जब ब्याहकर आई थी तो बाहर ही खुले में सब कुछ होता था। उसको अपने सांवले भरेपूरे बदन, जिसे वो गोरा बताती थी, को कुएं पर जाकर धोना पड़ता था और गांव के मियां अशरफ बहाने से छत पर चढ़कर उसको घूरा करते थे। बाद में ये बात जब आबू को पता चली तो पठानी खून में फौलादी उबाल आ गया और वो ऐसा न करने की बात कहने उसके घर जा पहुंचे। अशरफ ने भी कह दिया कि मेरी बेगम तो गुलाब का फूल है मैं क्यों तेरी भैंस जैसी बेगम को घूरूंगा। बात बढ़ गई और अशरफ ने आबू को धक्का मार दिया। तब अब्बा जान ने कोतवाल आजमी साहब से शिकायत की। आजमी ने अशरफ को कई दिनों तक धमकाया और वसूली की। अम्मी ने फातिमा को आश्वासन दिया- दुल्ही जल्दी गुसरखाना और पाखाना बनवा लेय हैं। बाद में ये बने।
खैर, फिलहाल तो मामला यह है कि गुसरखाने का क्या किया जाए? आबू गुसरखाने का निरीक्षण कर ही रहा था, जो वो पहले भी कई बार कर चुका था पर आज तो इसका निकाल करना ही था। बेटी जवान हो रही है उसे कुएं पर थोड़े ही भेजा जा सकता है। स्मार्ट फोन का जमाना है कहीं किसी ने चुपके से फोटो खींच ली या वीडिया (वीडियो) बना लिया तो! आबू का घर भी अकबर-बाबर के जमाने का था। तिस पर मोटे-मोटे चूहे, जिन्हें मूसा कहा जाता है, यहां-वहां धमा-चौकड़ी मचाते नजर आ जाते थे। बेटी शमीम चिल्लाती-पापीजी…पापीजी…मूस। आबू के घर गरीबी को ढोल पिटता था न जाने ये मूसे इतने मोटे-ताजे क्यों है? आबू का बेटा इकबाल कई बार कोशिश कर चुका था कि किसी तरह मूसे की पूंछ में धागा बांधकर खेल करे, पर वो सफल नहीं हुआ। वो जब हंसकर इन्हें हजरत कहता तो फातिमा उसे डांटती। मजहब का मजाक बनावत है। इसके साथ ही चिंतित होकर फातिमा कहती- बिट्टन मत छेड़ वाके काट लेय है।
मूसों को भी कहीं न कहीं घर बनाने का मौका मिल ही जाता था पिछले दिनों चूहों ने रोशनदान में ही बच्चे दे डाले। इकबाल ने ये बच्चे ले लिए और कुत्तों के सामने डाल दिये। कुत्ते इनको सूंघकर भाग गए और सूअर साफ कर गए। फातिमा ने इकबाल को इसके लिए डांटा। क्या करता है? वाकी मां बदुआ दे है तोके। यजीद कहीं का! इसके बाद गुस्साए मूसों ने फातिमा का गहरा लाल सलमा-सितारों से सजा, भारी जरी और चमक की लेसों से सजा सूट कुतर डाला। शमीम का बेस भी काट दिया। इसमें पैसों का नुकसान हुआ। आबू को याद है जब फातिमा उस सूट को पहनती थी तो कयामत ही लगती थी। वो तो फातिमा का मोटापा और उससे उपजा खून का दौरा था वर्ना वो पैदाइश को खुदा की देन मानता ही था।
आबू कुछ सोच रहा था कि फातिमा के चिल्लाने की आवाज आई। अरे हिया कचरा क्या डाल रहा है? आबू बाहर आया देखा तो अशरफ ने वहां गुटके का बड़ा पाउच फेंक दिया था। आबू बाहर आया- जनाब ऐसा मत करो। अशरफ ने उनकी बात सुनी तो वहां गुटके की उलटी ही कर डाली। अरे… ये क्या बात हुई। आबू को गुस्सा आ गया। तेरी….तेरी…. अशरफ ने आबू को गालियां दीं। आबू बाहर निकल आया। क्यों ये क्या बात है? अबे अभी तो थूका है…गाली भी दी है…हां वही गाली भी दी है, ज्यादा बोलेगा तो अंतडिय़ां निकाल दूंगा। आबू को गुस्सा आ गया तो अशरफ ने उसे धक्का मार दिया। आबू घर की सीढिय़ों पर गिर गया। सिर फूट गया, उसमें खरोच आई और खून बहने लगा। अशरफ तम्बाकू का जर्दा हथेलियों में मलता चला गया। अरे… फातिमा दौड़ी। आबू सम्हालते हुए उठा। घर शमीम के हवाले कर वो उसे लेकर पुलिस स्टेशन चली गई। इकबाल को मटरगश्र्ती करने से गुरेज था ही नहीं। वो दोनों अकेल ही चले। पुलिस स्टेशन में फातिमा और आबू को बिठा लिया। जब साहब आएंगे तब मेडिकल होगा, फिर रिपोर्ट लिखेंगे। अरे आजमी साहब कहां है? फातिमा यहां-वहां हुई। आबू बैठा था। आजमी साहब हो गए रिटायर अब सिसोदिया और खान साहब का जमाना है- सिपाही बोला। एक पुलिस वाले को दया आई- अरे शिकायत लिखवाकर रवाना कर दे। इलाज तो ये खुद ही करवा लेगा। खान या सिसोदिया के हवाले बैठा तो दिन निकल जाएगा। सिसोदिया साहब की लड़की शादी है मेहंदी होगी तो वो तो आएंगे नहीं। खान साहब तबीयत के आदमी हैं चाहें तो आए वर्ना गाड़ी में बैठकर फांकाबाजी करते फिरें। जलन बातों के साथ निकल आई। जान से मारने की धमकी दी है क्या? सिपाही ने यूं ही पूछ लिया पर आबू के मन में गुसरखाना और अशरफ के सिवा कुछ नहीं था। फातिमा परेशान थी। आबू को गुसरखाने में टपकती बूंदों की आवाज सुनाई दे रही थी।
आबू गुसरखाने में देख रहा था। फातिमा यानी आबू की शरीकेहयात यानी उसकी बेगम यानी उसकी पत्नी जब से ब्याहकर आई है ये बात कहती रही है कि कम से कम दरवाजा तो लगवा दो कब तक गुसरखाने के दरवाजों को हाथों से उठाकर रख यहां-वहां रखते रहेंगे? यहां भारी सीलन भी है। नहाओ या पाखाना फिरो तो सिर पर पानी टपक पड़ता था। इससे सर्दी भी हो जाती थी भरी गर्मी हो या कंपकंपाती सर्दी, बारिश में तो हालत और खराब थी। गुसरखाने में ऊपर लगी टंकी से पानी रिसता था। दीवारों से लगातार पानी रिस रहा था। सीलन से पूरा गुसरखाना और पाखाना नमीदार हो रहा था। टंकी तो हटाई नहीं जा सकती थी। अब कुछ तो करना ही था सोचते तो वक्त ओ वक्त गुजर गए।
फातिमा जब ब्याहकर आई थी तो बाहर ही खुले में सब कुछ होता था। उसको अपने सांवले भरेपूरे बदन, जिसे वो गोरा बताती थी, को कुएं पर जाकर धोना पड़ता था और गांव के मियां अशरफ बहाने से छत पर चढ़कर उसको घूरा करते थे। बाद में ये बात जब आबू को पता चली तो पठानी खून में फौलादी उबाल आ गया और वो ऐसा न करने की बात कहने उसके घर जा पहुंचे। अशरफ ने भी कह दिया कि मेरी बेगम तो गुलाब का फूल है मैं क्यों तेरी भैंस जैसी बेगम को घूरूंगा। बात बढ़ गई और अशरफ ने आबू को धक्का मार दिया। तब अब्बा जान ने कोतवाल आजमी साहब से शिकायत की। आजमी ने अशरफ को कई दिनों तक धमकाया और वसूली की। अम्मी ने फातिमा को आश्वासन दिया- दुल्ही जल्दी गुसरखाना और पाखाना बनवा लेय हैं। बाद में ये बने।
खैर, फिलहाल तो मामला यह है कि गुसरखाने का क्या किया जाए? आबू गुसरखाने का निरीक्षण कर ही रहा था, जो वो पहले भी कई बार कर चुका था पर आज तो इसका निकाल करना ही था। बेटी जवान हो रही है उसे कुएं पर थोड़े ही भेजा जा सकता है। स्मार्ट फोन का जमाना है कहीं किसी ने चुपके से फोटो खींच ली या वीडिया (वीडियो) बना लिया तो! आबू का घर भी अकबर-बाबर के जमाने का था। तिस पर मोटे-मोटे चूहे, जिन्हें मूसा कहा जाता है, यहां-वहां धमा-चौकड़ी मचाते नजर आ जाते थे। बेटी शमीम चिल्लाती-पापीजी…पापीजी…मूस। आबू के घर गरीबी को ढोल पिटता था न जाने ये मूसे इतने मोटे-ताजे क्यों है? आबू का बेटा इकबाल कई बार कोशिश कर चुका था कि किसी तरह मूसे की पूंछ में धागा बांधकर खेल करे, पर वो सफल नहीं हुआ। वो जब हंसकर इन्हें हजरत कहता तो फातिमा उसे डांटती। मजहब का मजाक बनावत है। इसके साथ ही चिंतित होकर फातिमा कहती- बिट्टन मत छेड़ वाके काट लेय है।
मूसों को भी कहीं न कहीं घर बनाने का मौका मिल ही जाता था पिछले दिनों चूहों ने रोशनदान में ही बच्चे दे डाले। इकबाल ने ये बच्चे ले लिए और कुत्तों के सामने डाल दिये। कुत्ते इनको सूंघकर भाग गए और सूअर साफ कर गए। फातिमा ने इकबाल को इसके लिए डांटा। क्या करता है? वाकी मां बदुआ दे है तोके। यजीद कहीं का! इसके बाद गुस्साए मूसों ने फातिमा का गहरा लाल सलमा-सितारों से सजा, भारी जरी और चमक की लेसों से सजा सूट कुतर डाला। शमीम का बेस भी काट दिया। इसमें पैसों का नुकसान हुआ। आबू को याद है जब फातिमा उस सूट को पहनती थी तो कयामत ही लगती थी। वो तो फातिमा का मोटापा और उससे उपजा खून का दौरा था वर्ना वो पैदाइश को खुदा की देन मानता ही था।
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