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तू मेरा दर्पण

AjayShrivastava's blogs
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तू मेरा दर्पण
छह दोस्त एक पहाड़ी के पास से जा रहे थे। छहों ने देखा कि एक आदमी पहाड़ी के शिखर पर बैठा क्षितिजागत सूर्य को ताक रहा है। छहों ने उसे देखा और उसके यूं बैठने का कारण जानने चल पड़े।
पहला बोला- ये तो कोई साधू लगता है। सूर्य को देखकर मंत्र पढ़ रहा मालूम होता है।
दूसरा बोला- नहीं ये कोई चोर या लुटेरा लगता है। यहां से निकलने वाले की तलाश में है।
तीसरा बोला- नहीं ये कोई पथिक लगता है देखो थका-मांदा मालूम होता है। जगह पाकर यहां रुक गया।
चौथा कहां चुप रहने वाला था- मैं तो किसी से सहमत नहीं हूं। ये कोई सिरफिरा बेकार बेरोजगार आदमी है। आलसी कहीं का। यहां बैठकर काम से बच रहा है।
पांचवा बोला- ये यहां से जाती महिलाओं को देखने के लिए तो यहां नहीं बैठा है।
छठां बोला- चुप करो… हमें उससे क्या लेना-देना? उसी से पूछते हैं वैसे वो सामान्य तो नहीं लगता
छहों अपने-अपने तर्क लगाते हुए वहां जा पहुंचे जहां वो आदमी बैठा था।
कौन हो तुम? तुम यहां क्यों बैठे हो? तुम क्या व्यवसाय करते हो? तुम्हारे यहां बैठने का प्रयोजन क्या है? तुम क्या चाहते हो? तुम्हें यहां यूं बैठना अजीब नहीं लगता… लोग क्या सोचेंगे?
लगातार प्रश्रों को सुनने के बाद भी वो आदमी विचलित नहीं हुआ।
मैं एक सामान्य आदमी हूं। मैं यहां प्रकृति को देखने के लिए बैठा हूं। मैं आप ही की तरह कार्य करता हूं और प्रतिफल से अपना और अपने लोगों को भरण-पोषण क रता हूं।  मैं यहां बैठकर प्रकृति के सौंदर्य को देख रहा हूं।  मैं यूं ही इस दृश्य को देखते रहना चाहता हूं। मुझे दूसरों से क्या लेना  देना। मैं स्वयं ही आनंद में हूं क्या ये कम नहीं है? मेरे स्वयं के प्रति उत्तदायित्व को लेकर।
छहों निरुत्तर हो गए। हम किसी भी प्रति चिंतन करते समय अपना एक अलग दृष्टिकोण स्थापित कर लेते हैं और ये दृष्टिकोण हमारे स्वयं  के द्वारा उपजाया होता है। जैसे हम स्वयं हो सकते हैं वैसी ही छवि दूसरों में दिखाई देती है। इसमें हमारे अपने अनुभव भी शामिल होते है। हालांकि ये कितना सही है और कितना गलत ये भावी परिणाम पर निर्भर करता है पर सत्य यही है कि कोई अन्य जब तक हमारे ज्ञान में नहीं होता तब तक वो एक दर्पण के समान होता है जिसमें हमें अपनी दृष्टिकोण का प्रतिरूप दिखता है। इस बात को हमारे यहां एक लोकोक्ति में कुछ यूं कहा गया है- जाकी रही भावना जैसी तेहि दिखे प्रभु सूरत वैसी या सावन के अंधे को सब हरा ही हरा दिखता है।
अरे ओ सखी, सुन तुझमें मेरा ही रूप। दु:खी संसार लगे मोहे सेज पिया की। चहुं और दिखे मुझे पिया ही पिया।
जैसा मन होता है वैसा ही दृश्य चारों ओर प्रकट हो जाता है। मन सुखी तो संसार सुखी मन दु:खी तो सब दु:खी।
नानक ने एक सुखिया न पाया संसार में- नानक दुखिया सब संसार।।
रविदास ने मन की आंखों से देखा जाना- मन चंगा तो कठौती में गंगा। जैसा मन वैसा दृश्य।
इस लिए कह सकते हैं कि तू मेरा दर्पण है। तुझमें मुझे मेरी ही भावनाओं और विचारों का रूप दिखता है। तू ही है मेरा दर्पण।

छह दोस्त एक पहाड़ी के पास से जा रहे थे। छहों ने देखा कि एक आदमी पहाड़ी के शिखर पर बैठा क्षितिजागत सूर्य को ताक रहा है। छहों ने उसे देखा और उसके यूं बैठने का कारण जानने चल पड़े।

पहला बोला- ये तो कोई साधू लगता है। सूर्य को देखकर मंत्र पढ़ रहा मालूम होता है।

दूसरा बोला- नहीं ये कोई चोर या लुटेरा लगता है। यहां से निकलने वाले की तलाश में है।

तीसरा बोला- नहीं ये कोई पथिक लगता है देखो थका-मांदा मालूम होता है। जगह पाकर यहां रुक गया।

चौथा कहां चुप रहने वाला था- मैं तो किसी से सहमत नहीं हूं। ये कोई सिरफिरा बेकार बेरोजगार आदमी है। आलसी कहीं का। यहां बैठकर काम से बच रहा है।

पांचवा बोला- ये यहां से जाती महिलाओं को देखने के लिए तो यहां नहीं बैठा है।

छठां बोला- चुप करो… हमें उससे क्या लेना-देना? उसी से पूछते हैं वैसे वो सामान्य तो नहीं लगता

छहों अपने-अपने तर्क लगाते हुए वहां जा पहुंचे जहां वो आदमी बैठा था।

कौन हो तुम? तुम यहां क्यों बैठे हो? तुम क्या व्यवसाय करते हो? तुम्हारे यहां बैठने का प्रयोजन क्या है? तुम क्या चाहते हो? तुम्हें यहां यूं बैठना अजीब नहीं लगता… लोग क्या सोचेंगे?

लगातार प्रश्रों को सुनने के बाद भी वो आदमी विचलित नहीं हुआ।

मैं एक सामान्य आदमी हूं। मैं यहां प्रकृति को देखने के लिए बैठा हूं। मैं आप ही की तरह कार्य करता हूं और प्रतिफल से अपना और अपने लोगों को भरण-पोषण क रता हूं।  मैं यहां बैठकर प्रकृति के सौंदर्य को देख रहा हूं।  मैं यूं ही इस दृश्य को देखते रहना चाहता हूं। मुझे दूसरों से क्या लेना  देना। मैं स्वयं ही आनंद में हूं क्या ये कम नहीं है? मेरे स्वयं के प्रति उत्तदायित्व को लेकर।

छहों निरुत्तर हो गए। हम किसी भी प्रति चिंतन करते समय अपना एक अलग दृष्टिकोण स्थापित कर लेते हैं और ये दृष्टिकोण हमारे स्वयं  के द्वारा उपजाया होता है। जैसे हम स्वयं हो सकते हैं वैसी ही छवि दूसरों में दिखाई देती है। इसमें हमारे अपने अनुभव भी शामिल होते है। हालांकि ये कितना सही है और कितना गलत ये भावी परिणाम पर निर्भर करता है पर सत्य यही है कि कोई अन्य जब तक हमारे ज्ञान में नहीं होता तब तक वो एक दर्पण के समान होता है जिसमें हमें अपनी दृष्टिकोण का प्रतिरूप दिखता है। इस बात को हमारे यहां एक लोकोक्ति में कुछ यूं कहा गया है- जाकी रही भावना जैसी तेहि दिखे प्रभु सूरत वैसी या सावन के अंधे को सब हरा ही हरा दिखता है।

अरे ओ सखी, सुन तुझमें मेरा ही रूप। दु:खी संसार लगे मोहे सेज पिया की। चहुं और दिखे मुझे पिया ही पिया।

जैसा मन होता है वैसा ही दृश्य चारों ओर प्रकट हो जाता है। मन सुखी तो संसार सुखी मन दु:खी तो सब दु:खी।

नानक ने एक सुखिया न पाया संसार में- नानक दुखिया सब संसार।।

रविदास ने मन की आंखों से देखा जाना- मन चंगा तो कठौती में गंगा। जैसा मन वैसा दृश्य।

इस लिए कह सकते हैं कि तू मेरा दर्पण है। तुझमें मुझे मेरी ही भावनाओं और विचारों का रूप दिखता है। तू ही है मेरा दर्पण।

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