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खुद से पूँछना

साहित्य दर्पण
साहित्य दर्पण
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मै चुपचाप बेठी सोच रही थी, क्या खोया क्या पाया हमने।   खुद के अंदर झाँक रही थी,क्या खोया क्या पाया हमने।।      वचपन था कितना भोला,झगडे थे पर अच्छे थे,                    झगडे में सो किस्से थे,किस्से ही तो हिस्से थे!!                     खुद के अंदर झाक रही थी, क्या खोया क्या पाया हमने।।     जवानी में बङे झवेले थे,अंजानी शी राये थी,                        किसी की यादों में खेले थे, दोस्तो के संग गलियो के मेळे थे,  लगते हसीन मेळे थे, शादी हुई तो समझे थे,!!                      खुद के अंदर झाँक रहे है, क्या खोया क्या पाया हमने।।      कल की चिन्ता करते थे, सुबह से शाम कामकाज करते थे,  आकाँक्षाओ का विस्तार था, थमता नहीं तूफान था,             कब जवानी गई चली गई,    कब बुढापा आया समझे नहीं।।  खुद के अंदर झाँक रही हूँ , क्या खोया क्या पाया हमने।।       बुढापे में खुद का साथ छूट रहा था, बीमारियाँ घेर रही थी, बीते पल मुझसे पूँछ रही थी ,   अच्छा था सच में वचपन,       सच्चा था सच में वचपन,न था कोई बैरी सब थे अपने,          कोई मजहब का बंधन न था, कोई दीवान न थी।।                हँसते थे रोते में ही हँसते थे,क्यो आती हे जवानी?               क्यो आता हे बुढापा? क्यो समय हे बदला?                          खुद के अंदर झाँक रही हूँ, क्या खोया क्या पाया हमने।।      मजहब की खिचती दीवारे देखी,माया के लिए लङते देखा,   मुस्कान थी चहरो पर ,दिल में खिचती तलवारे देखी,           वचपन  प्यार का झरोखा देखा, बाकी हन पल आसू देखे।।    बाकी हमने खोया हमने,वचपन में ही पाया हमनें।                 खुद के अंदर झाँक रही हूँ,क्या खोया क्या पाया हमने।।

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