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कर्नाटक के मुख्यमंत्री एच डी कुमारस्वामी ने हाल में एक बयान दिया है जो काफ़ी चर्चा का विषय बना हुआ है जिसमें उन्होंने कहा है कि वह कर्नाटक के साढ़े छः करोड़ जनता की कृपा से मुख्यमंत्री नहीं बने हैं बल्कि कॉंग्रेस की दया से मुख्यमंत्री बने हैं. भले इस बात में सच्चाई हो परंतु सार्वजनिक रूप से इस तरह के बयान कहीं न कहीं जनता के लिए एक धमकी की तरह प्रतीत होते हैं. कर्नाटक के खंडित जनादेश के बाद जिस तरह कॉंग्रेस ने तीसरे नंबर की पार्टी जेडीएस को समर्थन देने का ऐलान कर कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार कर लिया इससे यह तो साबित होता ही है कि कुमारस्वामी जनमत से नहीं बल्कि 10 जनपथ की कृपा से मुख्यमंत्री बने हैं, यह बात और है कि बीजेपी को कर्नाटक की सत्ता से दूर रखने के लिए कॉंग्रेस के पास और कोई चारा भी नहीं था।
शपथ ग्रहण के तुरंत बाद राहुल गाँधी के विदेशी दौरे के कारण अभी तक मंत्रिमंडल का गठन भी नहीं हो पाया है और सरकार केवल मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री चला रहे हैं. अभी से ही कुमारस्वामी कॉंग्रेस के समक्ष जिस तरह लाचार नज़र आ रहे हैं उससे कहीं न कहीं यह संदेश मिलता है कि वह एक रोबोट सीएम की तरह काम करेंगे जिसका रिमोट 10 जनपथ में होगा. चुनाव प्रचार के दौरान दोनों पार्टियाँ एक दूसरे पर कई आरोप लगा रही थी, यहाँ तक कि कॉंग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने जेडीएस को बीजेपी की बी-टीम तक कहा था परंतु दोनों अभी एक साथ सरकार चला रहे हैं. जेडीएस ने चुनाव पूर्व यह ऐलान किया था कि अगर वह सत्ता में आई तो 24 घंटे के भीतर किसानों का कर्ज़ माफ़ करेगी परंतु अभी तक ऐसी कोई घोषणा नहीं हुई है, कॉंग्रेस इसके पक्ष में भी नहीं दिखाई दे रही है. दोनों पार्टियाँ कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तहत सरकार चलाने की बात कर रहीं हैं. परंतु यह सरकार कितनी टिकाऊ होगी यह कहा नहीं जा सकता. उप-मुख्यमंत्री परमेश्वरा ने पहले ही कह दिया है कि यह सरकार पूरे 5 साल चलेगी इसकी कोई गारंटी नहीं है. वैसे भी कॉंग्रेस का इतिहास रहा है कि जब भी उसने दूसरी पार्टियों को समर्थन दिया है सरकार ज़्यादा चली नहीं है और इसका सबसे बड़ा उदाहरण 1996 में एच डी देवेगौड़ा के नेतृत्व में बनी केंद्र सरकार है.
कर्नाटक के चुनाव में बीजेपी भले ही सरकार बनाने में नाकामयाब रही हो परंतु उसका प्रदर्शन उत्कृष्ट रहा है. राज्य दर राज्य बीजेपी की मजबूत होती स्थिति ही है जिसने सभी विपक्षी दलों को एक साथ आने पर मजबूर कर दिया है. आज विपक्ष में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का कोई नेता नहीं है और यह बात उन्हें भी मालूम है. लोकसभा के चुनाव के बात बीजेपी जिस तरह एक के बाद एक राज्य जीतती चली जा रही है, आज ऐसी स्थिति आ गई है कि अगर वे साथ नहीं आए तो उनके अस्तित्व पर ही संकट आ जाएगा. यही कारण है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के नज़दीक आते ही सभी विपक्षी दल एक मंच पर साथ दिखाई दे रहे हैं, यह अवश्य नरेंद्र मोदी और बीजेपी के लिए एक मजबूत चुनौती है और हाल में हुए उप- चुनाव के नतीजों से यह साबित भी होता है. अमूमन पहले देखा जाता था कि लोकसभा चुनाव नज़दीक आते ही तीसरा मोर्चा की तैयारी शुरू हो जाती थी परंतु इस बार इसके आसार बहुत कम हैं क्योकि कॉंग्रेस अधिक से अधिक क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ना चाहती है और इस स्थिति में तीसरा मोर्चा के लिए ज़्यादा विकल्प भी नहीं बचता है.
कर्नाटक में जिस तरह बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर भी सरकार बनाने में असफल रही और जिस तरह कॉंग्रेस क्षेत्रीय दलों को अपने साथ जोड़ती चली जा रही है, एक बात तो तय है कि 2019 का मुकाबला काफ़ी रोचक होने वाला है. यदि बीजेपी अपने घटक दलों के साथ बहुमत पाने में असफल रहती है तो कॉंग्रेस हर तरह के समझौते के लिए तैयार रहेगी भले ही प्रधानमंत्री की कुर्सी किसी और को ही क्यों न सौपनी पड़े. बड़ा सवाल यह है कि क्या विपक्ष की यह एकता 2019 के लोकसभा चुनाव तक बनी रहेगी और क्या सीटों के बटवारे को लेकर विपक्षी दलों में आम सहमति बन पाएगी?
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