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यूपी का चुनावी शंखनाद

आपका चिंतन
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आबादी के हिसाब से यूपी दुनिया के अधिकांश देशों से बड़ा है. चीन, अमेरिका, इंडोनेशिया और ब्राज़ील ही ऐसे देश है जिनकी जनसंख्या उत्तर प्रदेश से ज़्यादा है. अगले साल यूपी में विधानसभा चुनाव है. उत्तर प्रदेश की राजनीति की बात किए बगैर हमारे देश की राजनीति की बात करना बेमानी मानी जानी है. वैसे भी केंद्र की राजनीति में यह हमेशा कहा जाता है कि दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर गुज़रता है. वर्तमान में सभी राजनीतिक पार्टियाँ अपने को चुनाव के लिए तैयार करने में लगी हैं. इलाहाबाद में बीजेपी की विशाल चुनावी रैली हो या हाल में अखिलेश सरकार के मंत्रिमंडल हुई फेरबदल, मायावती की ज़ुबानी जंग हो या कॉंग्रेस की यूपी को लेकर बढ़ती संवेदनशीलता. यह सभी चुनावी लक्षण हैं ताकि चुनावी माहौल बनाने में कोई पार्टी पीछे ना छूट जाए.

राष्ट्रीय पार्टियों की बात की जाए तो बीजेपी लोकसभा चुनाव के अपने मजबूत जनाधार से निश्चित रूप से उत्साहित है. लेकिन बीजेपी के पास सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसके पास कोई चेहरा नहीं है. कई नामों पर चर्चा हो रही है जिसमें राजनाथ सिंह, योगी आदित्यनाथ, वरुण गाँधी जैसे नाम प्रमुख हैं. परंतु इसकी संभावना भी काफ़ी कम है कि बीजेपी चुनाव से पहले किसी चेहरे पर मुहर लगाएगी. हिंदुत्व के मुद्दे के साथ बीजेपी की नज़र दलित वोट बैंक पर भी बनी हुई है. चाहे केशव प्रसाद मौर्य को यूपी का प्रदेश अध्यक्ष बनाना हो या अमित शाह का दलित परिवार के घर भोजन करना.

कॉंग्रेस ने शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया है. इसमें कोई शक नहीं कि शीला दीक्षित ने दिल्ली में अपने 15 साल के कार्यकाल में अपनी छवि एक विकासशील नेता के रूप में बनाई है. परंतु कुछ घोटालों में उनका नाम आना भी कहीं न कहीं उनकी छवि को नुकसान पहुँचा रही है. कॉंग्रेस शीला दीक्षित को यूपी की बहू के रूप में पेश करने में लगी है. हालाँकि यह चुनावी रणनीति का हिस्सा हो सकता है. पिछले दो दशकों से यूपी में कॉंग्रेस की स्थिति और वर्तमान जनाधार देखकर इसकी संभावना कम ही लगती है कि शीला दीक्षित कुछ चमत्कार करने में सफल हो पाएगी. कॉंग्रेस ने यूपी के प्रदेश अध्यक्ष भी बदला है. राज बब्बर को यूपी का प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया गया है. यूपी में कॉंग्रेस की स्थिति को देखकर यह समझ नहीं आ रहा है राज बब्बर को यूपी कॉन्ग्रेस अध्यक्ष का जिम्मा चुनाव के लिये दिया गया है या हार के बाद जिम्मेदारी लेकर इस्तीफे के लिये. ऐसे भी कयास लगाए जा रहे है कि इस चुनाव में प्रियंका गाँधी भी सक्रिय भूमिका में दिखेगी जो अब तक अमेठी और रायबरेली तक ही सीमित थी. गुलाब नबी आज़ाद को यूपी का चुनाव प्रभारी भी कहीं न कहीं उस मुस्लिम वोट में सेंध लगाने के उद्देश्य से बनाया गया है जो वर्तमान में समाजवादी पार्टी का वोट बैंक है. हालाँकि इस बार मुस्लिम वोटों में सेंध लगाने के उद्देश्य से ओवैसी के यूपी आगमन से दोनों दलों अवश्य परेशान होंगे.

समाजवादी पार्टी अपने कार्यकाल में किए गये काम और यादव-मुस्लिम समीकरण के भरोसे चुनावी मैदान में उतरने के लिए तैयार दिख रही है. भारतीय राजनीति के बैक रूम बॉय या कहे ब्रोकर अमर सिंह की समाजवादी पार्टी में वापसी हुई है. सपा का यह फ़ैसला कहीं न कहीं सवर्णों के वोटबैंक को ध्यान में रखकर लिया गया है. वहीं यूपीए-II में केंद्र में मंत्री रहे बेनी प्रसाद बर्मा की भी सपा वापसी हुई है जिससे कहीं न कहीं सपा को कुर्मी वोटेबैंक पाने में आसानी होगी. यह बात और है कि बेनी प्रसाद बर्मा हो या अमर सिंह दोनों एक समय मुलायम सिंह यादव पर ज़ुबानी हमलें करने के लिए जाने जाते थे. शायद इसीलिए कहा जाता है कि राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता है. सपा राज्यसभा चुनाव में मुख़्तार अंसारी की कौमी एकता दल को लुभावन देकर उसका समर्थन पाने में भी कामयाब रहीं. हालाँकि शिवपाल यादव ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की कि कौमी एकता दल का सपा में विलय हो जाए परंतु अखिलेश यादव के हस्तक्षेप के बाद विलय नहीं हो सका. इसके बाद से एक ही परिवार के अखिलेश यादव और शिवपाल सिंह आमने-सामने आ गये है. दूसरी तरफ आज़म ख़ान और अमर सिंह के रिश्ते भी किसी से छिपे नहीं हैं.

बीजेपी के यूपी प्रदेश उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह द्वारा मायावती के खिलाफ किए गये अभद्र टिप्पणी ने मायावती के लिए सहानुभूति बटोरने का काम किया है. हालाँकि बीजेपी ने दयाशंकर सिंह को 6 साल के लिए पार्टी से निष्कासित कर दिया है परंतु बसपा इसे चुनावी बनाने में लगी है. चुनाव करीब आते ही दल-बदल का खेल भी शुरू हो गया है. यूपी के कद्दावर नेता स्वामी प्रसाद मौर्य और आर. के. चौधरी का बसपा छोड़ना इसी का एक उदाहरण है. वैसे भी बसपा में सिंगल विंडो सिस्टम जैसी स्थिति है. इसके सारे फ़ैसले मायावती ही लेती है और जो उनके फ़ैसले के विरुद्ध होता है उसे बाहर का रास्ता देखने पड़ता है. खास बात यह है कि जब भी कोई नेता किसी पार्टी में होता है तो उसका पार्टी अध्यक्ष सम्मानीय तथा अच्छे निर्णय लेने वाला होता है परंतु पार्टी से बाहर होते ही उसी पार्टी अध्यक्ष द्वारा सही निर्णय लेने की क्षमता समाप्त हो जाती है. यही कारण है कि पार्टी से बाहर आते ही स्वामी प्रसाद मौर्य ने मायावती को दलित की बेटी के जगह पर दौलत की बेटी तक कह दिया.

सवाल यह है कि क्या यूपी विधानसभा चुनाव के नतीजे 2019 के लोकसभा चुनाव की ज़मीन तैयार करने में मददगार साबित होंगे या अगले 2 साल में यूपी सरकार द्वारा किया गया काम ही 2019 में ज़्यादा मायने रखेगा. नतीजे जो भी हो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे ज़्यादा आबादी वाले राज्य का विधानसभा चुनाव देश ही नहीं बल्कि देश के बाहर भी चर्चा का विषय रहने वाला है.

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