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सेक्युलरिज़्म की बदलती परिभाषा

आपका चिंतन
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सेक्युलरिज़्म सदियों से हमारे देश की पहचान रही है. यही कारण है कि हमारा देश अनेकता में एकता का प्रतीक माना जाता रहा है. वर्तमान में सेक्युलरिज़्म देश की राजनीति में एक बड़ा मुद्दा है. सभी राजनीतिक पार्टियाँ अपने फायदे के लिए इसे अपने अनुसार परिभाषित करने का प्रयास करती है. भाजपा सेक्युलरिज़्म को हिंदुत्व से जोड़कर देखती है तो कॉंग्रेस तथा अपने आप को सेक्युलर कहने वाली राजनीतिक पार्टियाँ इसे किसी खास समुदाय के लिए तुष्टिकरण के रूप में देखती है. भाजपा के लिए आरएसएस संप्रदायिक नहीं है तो कॉंग्रेस के लिए मुस्लिम लीग और एमआइएम जैसी पार्टियाँ भी अछूत नहीं हैं.

आज स्थिति ऐसी हो गयी है कि यदि कोई व्यक्ति हिंदू देवी देवताओं का अपमान कर दें तो वह सेक्युलर बन जाता है. मुसलमानों के लिए आरक्षण की बात कर दें तो वह सेक्युलर बन जाता है. बीफ बैन के विरुद्ध बोल दें तो सेक्युलर हो जाता है. संघ की तुलना आतंकवादी संगठन से कर दें तो वह सेक्युलर हो जाता है. मूर्ति पूजा और हिंदू त्योहारों पर सवाल उठा दें तो वह सेक्युलर हो जाता है. कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें संस्कृत में सांप्रदायिकता दिखाई देती है तो कुछ को राम मंदिर में. यहाँ तक कि योग को भी संप्रदायिक नज़रिये से देखने वालों की कमी नहीं है. यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेशी दौरों में अपने आप को सेक्युलर कहने वाली देश की राजनीतिक ताकतों पर कटाक्ष करने से भी नहीं चूकते.

वर्तमान में कुछ ऐसी घटनाएँ ज़रूर ऐसी हुई हैं जिसके कारण देश की छवि धूमिल हुई है. दादरी की घटना निश्चित रूप से इंसानियत को शर्मसार करने वाली थी और इसकी जितनी भर्त्सना की जाए कम है परंतु इस एक घटना से पूरे देश की सहिष्णुता का आकलन करना ग़लत है. सेक्युलरिज़्म की आड़ में देश के कई बुद्धिजीवियों, फिल्मकारों, साहित्यकारों तथा वैज्ञानिकों ने पुरस्कार और सम्मान लौटाएँ. हमारे देश में पुरस्कार भले ही किसी स्वायत्त संस्था द्वारा दिए जाते हो परंतु इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इसमें सत्ताधारी पार्टी का भी प्रभाव होता है. यही कारण है कि पुरस्कार लौटाने वाले बुद्धिजीवियों में अधिकतर वे लोग हैं जिन्हें गैर भाजपा सरकार के कार्यकाल के दौरान देश के प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाज़ा गया. कुछ बुद्धिजीवी ऐसे भी है जो आज किसी अन्य राजनीतिक पार्टी सा हिस्सा हैं. कुछ ऐसे भी हैं जो लोकसभा चुनाव के पूर्व मोदी को प्रधानमंत्री नहीं बनाने के लिए चलाए गये अभियान का हिस्सा रहे थे.

साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी की शुरुआत करने वाली नयनतारा सहगल का संबंध नेहरू-गाँधी परिवार से है जो जवाहर लाल नेहरू की भांजी है. इसी कड़ी में एक नाम सारा जोसेफ का भी है जिन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी का नेतृत्व भी किया था. पद्म भूषण सम्मान लौटाने वाले वैज्ञानिक पी. एम. भार्गव को यह सम्मान 1986 में कॉंग्रेस के ही शासनकाल में मिला था. ऐसे और भी कई नाम हैं जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि असहिष्णुता के नाम पर पुरस्कार वापसी का यह अभियान राजनीति से प्रेरित है. यही कारण है कि बिहार चुनाव के ख़त्म होने के साथ ही अवॉर्ड वापसी का दौर भी समाप्त हो गया है.

सवाल यह उठता है कि यदि यह राजनीति से प्रेरित नहीं है तो 1984 के सिख दंगों के समय ये बुद्धिजीवी कहाँ थे, जब कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार किये जा रहे थे तब ये बुद्धिजीवी कहाँ थे. आज़ादी के समय कश्मीर में कश्मीरी पंडितों की संख्या जहाँ कुल आबादी का 15% थी वहीं आज कश्मीरी पंडितों के केवल 808 परिवार ही घाटी में बचे है. बाकियों को या तो वहाँ से विस्थापित होना पड़ा, उनका धर्मांतरण कर दिया गया या मौत के घाट उतार दिया गया. आश्चर्य की बात है कि तक तो किसी को यह देश असहिष्णु नहीं लगा. ऐसा इसलिए क्योंकि उन बुद्धिजीवियों के लिए भी सेक्युलरिज़्म की अपनी अलग व्याख्या है.

एक तरफ कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीफ खाने वाला बयान देकर लोगों की भावनाओं को आहत करते हैं तो इसी मुद्दे पर भाजपा के कई बड़े नेता भी अपनी ध्रुवीकरण की राजनीति के कारण असंवेदनशील बयान देने से नहीं चूकते. एक तरफ सबका साथ और सबका विकास की बात हो रही है तो दूसरी तरफ हमारा देश सांप्रदायिकता और सेक्युलरिज़्म के फेर में फँसा हुआ है. आज भारत विश्व के उन उभरते देशों में से एक है जो विकास की चोटी को छूने के लिए तत्पर है. परंतु यह इस देश का दुर्भाग्य ही है कि आज़ादी के 68 साल बाद भी यहाँ सेक्युलरिज़्म को अपने तरीके से परिभाषित करने के लिए राजनीतिक दलों में होड़ सी लगी है.

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