ये भी कितना विस्मयकारी है कि हमें स्वयं के जीवन की लेश मात्र चिंता तक नहीं, ऐसी मानसिकता बना बैठे है कि हेलमेट हो या सीट बेल्ट इनसे सुरक्षा नहीं होती बल्कि ये पुलिस के चालान से बचाने का नुस्खा है। बचपन से ही ऐसी प्रवत्ति बना दी जाती है कि जब तक डंडे के बल पर हांका ना जाए तब तक आदतों में सुधार नहीं लाते।अब वो चाहे मास्टर जी की क्लास का अधूरा होमवर्क हो या गाड़ी के अधूरे कागज़!
हमारे देश में प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में सड़क दुर्घटनाएं होती हैं, इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं में परोक्ष तौर पर केवल एक व्यक्ति ही नहीं मरता बल्कि अपरोक्ष रूप से उसके साथ मरता है मां- बाप की आशाओं का सूरज, मरता है अनाथ हुए मासूमों के हाथ का खिलौना, मरता है एक बहन की राखी का प्रेम,खो जाती है दीवाली के दियों की रोशनी। फिर भी हम कार में सीट बेल्ट और मोटरसाइकिल पर हेल्मेट को लगाना मुनासिब नहीं समझते।
हमें यह समझना होगा कि धूप,वर्षा,लू के गरम थपेड़ों के बीच खाकी वर्दी में चौराहे पर खड़ा वो व्यक्ति हमारी सुरक्षित यात्रा का भार अपने कंधो पर उठाए है।इसलिए हम सभी को चालान कि एक छोटी सी पर्ची से बचने के लिए नहीं बल्कि अपने परिवार की खुशियों के लिए यातायात नियमों का पालन करना ही चाहिए। जिस दिन घर से निकलते समय चालान कि पर्ची की जगह परिवार की तस्वीर चक्षु पटल पर उभरने लगेगी उसी दिन से नियमों की सार्थकता सिद्ध हो जाएगी। तब तक के लिए उम्मीद है कि आज चालान के भय से लगाया गया हेल्मेट कल लोगो की आदत बन जाएगा।
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