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न जाने क्यूँ आज वो बीते दिन याद आ रहे हैं,
अकेले बैठे थे तनहा कि वो सारे पलछिन याद आ रहे हैं.
वो पल जिन्हें याद कर मैं ऐसे जाता हूँ सिहर,
जैसे मोतियों कि माला से बिछड़ कर मोती जाती है बिखर.
ऐसी यादें जो शायद सुनहरी न थी,
पर उनकी छाप मेरे मन में काफी गहरी थी.
मैं था अपनी माँ-बाप कि आँखों का तारा,
और साथ ही साथ उनके बुढ़ापे का एकमात्र सहारा.
मेरे आने से सबके चेहरा पर खुशियाँ छा गयीं,
मेरी प्यारी किलकारी सबके मन को भा गयी.
कुछ वर्षों बाद एक घटना से मेरे परिवार के सपने गए बिखर,
मेरे भविष्य के बारे सोचकर सब गए थे सिहर.
उस घटना के कारण मैं अपने दोनों पैरों से लाचार हो गया,
मेरे खेलने, कूदने, चलने इत्यादि का सपना जार-जार हो गया.
मेरी माँ कहती थी कि मरे लाडले ये तेरे साथ क्या हो गया,
तेरा बचपन क्यों बैशाखी और व्हील चेअर का मोहताज हो गया.
पर मैं कहता माँ भगवान् ने मुझे जहाँ एक ओर अपंगता से किया मेरा अलंकरण,
वही दूसरी ओर उन्होंने मुझे प्रतिभा भी तो दी है विलक्षण.
मैं जानता था कि मेरी प्रतिभा का सब लोहा मानते थे,
पर मेरे पीठ पीछे मुझे अपांग कह कर चिढाते थे.
मत पूछो मेरे यारो इस अपंगता का दंश मैंने कहाँ कहाँ झेला,
शिक्षा के मंदिरों को चलाने वालों ने भी मुझे अपनी चौखट से धकेला.
मेरे परिवार के अलावा सबने मुझे समझ लिया लाचार,
और करने लगे सब मुझसे आवश्यकता से अधिक लाड-प्यार.
इस अतिसय प्यार ने मुझे निराशा में घेर लिया,
मैंने तबसे सदा के लिए समाज से मुंह फेर लिया.
पर एक दिन मेरी माँ ने दी मुझे यह सीख,
कि बेटा मत समझ अपनी जिंदगी को भगवान् की दी हुई भीख.
अपनी प्रतिभा से कर जा तू कुछ ऐसा काम,
कि तेरे जाने के बाद भी लोग तेरा लें गर्व से नाम.
उनकी बातों को सुन उपजा मेरे मन में आत्मविश्वास,
और मैंने अपने तन, मन, धन, से किया एकजुट प्रयास.
उस सीख का ही है ये परिणाम,
जो आज मैंने पाया यह अहम् मुकाम.
आज मैं उस मुकाम पर हूँ जहाँ लोग मुझे मेरे नाम से जानते हैं,
लोग मेरी अपंगता को भूल मेरे काम को सराहते हैं.
मैं आज इस कविता के माध्यम से कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूँ,
प्रश्न क्या मैं इस माध्यम से समाज को झकझोरना चाहता हूँ.
क्या अपंगता एक अभिशाप है?
क्यों अपंगता को समझते आप पूर्व जन्म का पाप है?
क्यों किसी अपंग को आप इतना लाचार समझ लेते हैं?
क्यों समाज में उन्हें अपने बराबर का दर्जा नहीं देते है?
क्यों आप अपांग लोगों को समझते है जीरो?
जबकि असल मायने में वही हैं इस समाज के असली हीरो.
अगर बदलनी है समाज की तस्वीर और तक़दीर,
तो उतार फेकिये सामाजिक अपंगता की जंजीर.
एकजुट होकर करिए सब लोगों का एक सामान सम्मान,
तब जाकर हो पायेगा हमारा देश महान.
रचयिता: आशुतोष कुमार द्विवेदी “आशु”
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