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नन्ही कली के रूप में मैं इस बगिया में आई थी.
मुझको इस बगिया में देखकर सबके चेहरे पर खुशियाँ छाई थी.
पापा मुझको बिटिया कहते, माँ लाडो कह के बुलाती थी.
सुनकर इन प्यारे शब्दों को मैं सब दुःख भूल जाती थी.
मम्मी पापा और परिवार के प्यार की छाओं में पली बढ़ी.
न जाने कब मेरी किलकारी, कब एक मधुर मुस्कान बनी.
मैं जब थोडा और बढ़ी, पापा ने भेजा स्कूल मुझे,
वो कहते थे बिटिया मेरी, रोशन करना है मेरा नाम तुझे.
पढ़ लिखकर मैंने अपने पापा का मान बढाया,
मेरे परिवार ने इस समाज में था एक अलग मुकाम बनाया.
मैं जब थोडा और बढ़ी, पापा को चिंता होने लगी.
मम्मी भी अपने आँखों में, मेरे ब्याह के सपने संजोने लगी.
आखिर एक दिन वोह भी आया, जब धूम-धाम से मेरा ब्याह हुआ.
जिस परिवार को मैंने अपना माना, वो मुझसे अब जुदा हुआ.
डोली में थी बैठी जब मैं, माँ का बस यही था कहना,
जा रही हो बेटी डोली में, अब अर्थी में वहां से चलना.
अपने परिवार से जुदा हो मैं इस परिवार में मिल गयी,
नए जीवन की इस कल्पना में मेरी बांछे थी खिल गयी.
अगले हे पल मेरा सपना, सीसे सा चकनाचूर हुआ,
मेरी जिंदगी का सुख का कारवां अब मुझसे था दूर हुआ.
मेरे परिवार ने इस शादी में, न कसार एक भी छोड़ी थी,
पर ससुराल वालों का कहना था, के तेरे मायके वालों ने एक कौड़ी भी न दी.
धीरे-धीरे उनके दिए दुखों को मैं चुपचाप सहती गयी.
और उनके हर एक मांग को मैं यूँ ही पूरी करती गयी.
उनके द्वारा दिए दुखों और मांगो का अंत न था.
धीरे-धीरे मैं समझ गयी इस परिवार में कोई साधू संत न था.
आखिर एक दिन वो भी आया, जब मुझे इन लालचियों ने दहेज़ की आग में जलाया.
तब जाकर मुझको समझ में आया, वो सीख जो मुझे माँ ने बतलाया.
डोली में तो गयी थी मैं, पर अर्थी न मुझको नसीब हुई.
अर्थी की चिता के बदले मैं दहेज़ की आग में सती हुई.
पर आज मैं यही सोचती हूँ की आखिर मेरा क्या था कसूर,
क्यों लड़कियों को इस समाज में समझा जाता है एक नासूर.
दुर्गा, काली और सरस्वती को जहाँ माँ के रूप में पूजा जाता है.
उसी संसार में दहेज़ के लिए लड़कियों को जलाया जाता है.
आओ बनाये एक ऐसा समाज, जहाँ हो हर लड़की का सम्मान.
तभी बन सकेगा, मेरा भारत देश महान.
रचयिता: आशुतोष कुमार द्विवेदी “आशु”
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