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रेल बजट का सुनकर समाचार,
हमने किया रेल गाड़ी में सफर करने का विचार।
करके हमने यह विचार, पहुँच गए स्टेशन,
कतार में लग कर कराने लगे रिज़र्वेशन।
रिज़र्वेशन कराने की लंबी थी कतार,
कुछ लोग तो अपनी बारी का सुबह से कर रहे थे इंतजार।
जैसे ही मेरी बारी आई,
एक जी.आर.पी. महाशय ने अपनी मुंडी काउंटर में घुसाई।
ये देख मैंने कहा महाशय कृपया लाइन से आइये,
बारी तो मेरी है, इतना सुनते ही उसने अपनी आँखें तरेरी हैं।
आँखें तरेर कर वो मुझसे बोला,
तुझे ही बड़ी जल्दी है, तूने अपना मुंह खोला।
तो सुन हम रेल्वे के मेहमान कहलाते हैं,
और लाइन वहीं से शुरू होती है, जहां हम खड़े हो जाते हैं।
खैर आखिर वो पल भी आया, जब मैंने अपना रिजर्व टिकिट जुगाड़ से पाया।
टिकिट लेकर मैं प्लैटफ़ार्म की ओर चल पड़ा,
अभी चला ही था कि गाय के गोबर के कारण फिसल पड़ा।
तब आया मन में यह विचार,
लगता है गौ माता भी हैं रेलगाड़ी से कहीं जाने को तैयार।
कुछ सोच विचार कर मैं आगे बढ़ा,
प्लैटफ़ार्म पर जाने के लिए सीढ़ियो पर चढ़ा।
तभी मुझे वही मधुर आवाज सुनाई दी, यात्रीगण कृपया ध्यान दें,
कानपुर वाली गाड़ी प्लैटफ़ार्म नंबर 7 से नहीं जाएगी।
अब यह गाड़ी प्लैटफ़ार्म नंबर 2 से जाएगी।
किसी तरह मैं दौड़ते भागते प्लैटफ़ार्म नंबर 2 पर आया,
ट्रेन की भीड़ देख कर थोड़ा चकराया और घबराया।
फिर समझ कर मैंने अपने शरीर को भूसा,
अपने आपको ट्रेन की बोगी में ठूँसा।
बोगी में बचते बचाते मैं आगे बढ़ा,
कोई मेरे पाँव पर तो मैं किसी के पाँव पर चढ़ा।
किसी तरह मैं अपनी सीट पर आया,
मेरी सीट पर बैठे लोगों को देख मैंने फरमाया।
भाई साहब ये सीट मेरी है, कृपया उठ जाइए,
तो आवाज आई आगे उतरूँगा थोड़ा एडजस्ट कर बैठ जाइए।
मैंने भी अपनी नजरें इधर उधर दौड़ाई,
फिर किसी तरह से एडजस्ट कर मैंने अपनी तशरीफ़ टिकायी।
मेरे बैठते ही गाड़ी ने ज़ोर से सीटी बजाई,
और ड्राईवर ने पटरियों पर अपनी गाड़ी दौड़ाई।
गाड़ी ने पकड़ी अपनी रफ्तार,
और वेंडरों ने भी लगाई अपनी अपनी पुकार।
इतनी भीड़ में भी ये लोग कर रहे थे अपना व्यापार।
थोड़ी देर बाद मुझे हुआ लघुशंका का एहसास,
और मैं पहुँच गया शौचालय के द्वार के पास।
शौचालय का दृश्य देखकर मैं रह गया दंग,
स्वच्छ यात्रा करने का मेरा सपना हो गया भंग।
शौचालय में चहुओर गंदगी फैली हुई थी,
पूरी शौचालय ही मैली पड़ी हुई थी।
शौचालय में नहीं था पानी का कोई बंदोबस्त,
और सफाई कर्मचारी अपने आप मे ही थे व्यस्त और मस्त।
किसी प्रकार मैं उस नर्क से बाहर आया,
बाहर आ कर मैंने टी.टी. से फरमाया।
भाई साहब ये गंदगी आपको नहीं देती है दिखाई,
आखिर भारतीय रेल की कहाँ जाती है गाढ़ी कमाई।
इतना सुनते ही वो धीमे से मुस्कुराया,
फिर हम से प्यार से फरमाया।
हुजूर हम सब तो भारत की आम जनता हैं,
और रेल हो चाहे बस, यात्रा मे इतना तो चलता है।
टी.टी. भी अपनी धुन में मस्त था,
शायद वो अपनी कमाई करने में ज्यादा व्यस्त था।
फिर मैं आ कर अपनी सीट पर बैठ गया,
कुछ देर बाद चप्पल उतार कर लेट गया।
लेटते ही मुझको नींदिया ने घेरा,
एक घंटे बाद आ गया स्टेशन मेरा।
मैं अपनी नींदिया से जाग गया,
आँखें खोली तो देखा कि मेरी चप्पल ले कर कोई भाग गया।
किसी तरह मैं नंगे पैर अपने स्टेशन पर उतर गया,
मेरा रेल यात्रा करने का सुनहरा सपना बिखर गया।
मन ही मन मैं इस दुखद रेल यात्रा के बारे में सोच रहा था,
और रेल मंत्री के साथ-साथ अपने आप को भी कोस रहा था।
फिर याद आया मुझे रेल मंत्री का बजट,
जो की यथार्थ से बिलकुल था उलट।
मंत्री जी ट्रेनों में वाई-फ़ाई नहीं सफाई चाहिए,
रेल्वे के कर्मचारियों में ईमानदारी और सच्चाई चाहिए।
रेल के किराए को भले ही बढ़ा दीजिये,
लेकिन साथ ही साथ सुरक्षा और सफाई का भी ध्यान दीजिये।
इस से रेल यात्रियों की भी होगी भलाई,
और साथ ही साथ रेल्वे विभाग की भी होगी अच्छी कमाई।
जय हिन्द! जय युवा शक्ति!
रचयिता: आशुतोष कुमार द्विवेदी “आशु”
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